जानिये गायत्री मंत्र का रहस्य?

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गायत्री मन्त्र क्या है ? इसके जाप से क्या लाभ है ? यह कहाँ से ग्रहण हुआ ? 


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जगतगुरु रामपाल जी महाराज द्वारा परिभाषित

(30 अप्रैल 2006 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

गुरूजी से एक श्रद्धालु द्वारा पूछा गया प्रश्न :-

मैं प्रतिदिन गायत्री मन्त्र (ओम् भूर्भुवः स्वः- – -) के एक सौ आठ जाप करता हूँ। क्या यह साधना मोक्ष दायक नहीं है ?

उत्तर:- वेद ज्ञान से अपरिचित चतुर् व्यक्तियों ने गायत्री मन्त्र के नाम से श्लोक ओम् भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्- – -का जाप करने से मोक्ष बता कर भोले श्रद्धालुओं का अनमोल जीवन व्यर्थ करवा दिया। इस के विषय में लोक वेद (दन्त कथा) कहा जाता था कि यह मन्त्र चारों वेदों से निकाला गया निष्कर्ष रूप मन्त्र है। इसी से मोक्ष लाभ होता है। 
जबकि यह तो यजुर्वेद अध्याय 36 का मन्त्र सं. 3 है। 

विचार करें, क्या किसी सद्ग्रन्थ के केवल एक मन्त्र (श्लोक) का रट्टा लगाने (आवृत्ति करने) से आत्म कल्याण सम्भव है ? अर्थात् नहीं ।



कृप्या देखे फोटो कापी  यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र  3 का भाषा भाष्य –

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सद्ग्रन्थों के मन्त्रो (श्लोकों) में परमात्मा की महिमा है तथा उसको प्राप्त करने की विधि भी है। जब तक उस विधि को ग्रहण नहीं करेगें तब तक आत्म कल्याण अर्थात् ईश्वरीय लाभ प्राप्ति असम्भव है। जैसे पवित्र गीता अध्याय  17 मन्त्र (श्लोक)  23 में कहा है कि 

पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का तो केवल ॐ तत सत मन्त्र है, इसको तीन विधि से स्मरण करके मोक्ष प्राप्ति होती है। 
ओम्  मंत्र ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष का जाप है, तत् मंत्र (सांकेतिक है जो उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का जाप है तथा सत् मन्त्र (सांकेतिक है इसे सत् शब्द अर्थात् सारनाम भी कहते हैं। यह भी उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरूष (सतपुरूष) का जाप है। इस (ॐ-तत्-सत्) के जाप की विधि भी तीन प्रकार से है। इसी से पूर्ण मोक्ष सम्भव है।

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आर्य समाज प्रवर्तक  दयानन्द जी जैसे वेद ज्ञान हीन व्यक्तियों को यह भी नहीं पता था कि यह वाक्य किस वेद का है।

 ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ (दयानन्द मठ दीनानगर पंजाब से प्रकाशित) समुल्लास तीन में पृष्ठ 38,39 पर इसी मन्त्र (भूर्भुवः स्वः तत्- – -) का अनुवाद करते समय लिखा है कि 

भूः भुर्व स्वः यह तीन वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं, मन्त्र के शेष भाग (तत् सवितुः- – -प्रचोदयात) के विषय में कुछ नहीं लिखा है कि कहाँ से लिया गया है। स्वामी दयानन्द जी ने ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में किए इसी मन्त्र के अनुवाद में तथा यजुर्वेद में किए इस मन्त्र (भू भुर्वः- – -) के अनुवाद में विपरित अर्थ किया है।

तैत्तिरीय आरण्यक तो एक उपनिषद् है जिसमें किसी ऋषि का अपना अनुभव है। जबकि वेद प्रभु प्रदत ज्ञान है। हमने वेद पर आधारित होना है न कि किसी ऋषि द्वारा रचित अपने अनुभव की पुस्तक पर।

 यदि ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ पुस्तक की पोल न खुलती तो कुछ दिनों बाद यह भी एक उपनिषद् का रूप धारण कर लेता। आने वाले समय में अन्य पुस्तकों की रचना करते समय ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ के अज्ञान का समर्थन लेते तथा इससे भी अधिक अज्ञान युक्त पुस्तकों की रचना हो जाती।

यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 3 का भाषा भाष्य अर्थात हिन्दी अनुवाद संत रामपाल जी महाराज द्वारा किया हुआ।

यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 3 :-

भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धीयो यो नः प्रचोदयात्।

संधिछेद:- भूः-भुवः-स्वः- तत्- सवित्तुः- वरेण्यम्-भर्गः-देवस्य-धीमही-धीयः- यः-नः- प्रचोदयात्।

अनुवाद:- वेद ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि (स्वः) अपने निज सुखमय (भुवः) अन्तरिक्ष अर्थात् सतलोक व अनामय लोक में (भूः) स्वयं प्रकट होने वाला पूर्ण परमात्मा है। वही (सवितुः) सर्व सुख दायक सर्व का उत्पन्न करने वाला परमात्मा है (तत्) उस परोक्ष अर्थात् अव्यक्त साकार (वरेण्यम्) सर्वश्रेष्ठ (भर्गः) तेजोमय शरीर युक्त सर्व सृष्टि रचनहार (देवस्य) परमेश्वर की (धीमही) प्रार्थना, उपासना शास्त्रानुकूल अर्थात् बुद्धिमता से सोच समझ कर करें (यः) जो परमात्मा सर्व का पालन कर्ता है वह (नः) हम को भ्रम रहित (धीयः) शास्त्रानुकूल सत्य भक्ति बुद्धिमता अर्थात् सद्भाव से करने की (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे।

भावार्थ:- इस मन्त्र सं. 3 में यजुर्वेद अ. 40 मन्त्र 8 का समर्थन है कि जो (कविर्मनीषी) पूर्ण विद्वान अर्थात् भूत, भविष्य तथा वर्तमान की जानने वाला कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है वह पांच तत्व के शरीर रहित है (स्वयंभूः परिभूः) स्वय प्रकट होने वाला परमात्मा है पूर्ण परमात्मा का शरीर एक तत्व से बना है इसलिए उसे यजुर्वेद अध्याय 1 मन्त्र 15 तथा अध्याय 5 मन्त्र 1में कहा है कि (अग्नेः) परमेश्वर का नूरी अर्थात् तेजोमय (तनूः) शरीर (असि) है। उस सर्व शक्तिमान दयालु सुखमय परमात्मा की भक्ति सच्चे हृदय से शास्त्रानुकूल करें। वह पूर्ण परमात्मा ऊपर सतलोक में प्रकट होता है। उस से विनय है कि वह प्रभु सर्व प्राणियों को शास्त्रानुकूल साधना के लिए प्रेरित करे।

जैसे गुरु ग्रन्थ साहेब में श्री नानक साहेब जी की अमृतवाणी तथा परम पूज्य कबीर परमेश्वर जी की अमृतवाणी वेद ज्ञान युक्त है तथा वेदों से आगे का भी ज्ञान विद्यमान है। 
परंतु राधास्वामी पंथ के प्रथम संत व प्रवर्तक माने जाने वाले श्री शिवदयाल जी उर्फ राधास्वामी जी के अज्ञान युक्त वचनों से रची पुस्तक ‘सार वचन नसर व वार्तिक‘ को एक प्रमाणित शास्त्र मान कर श्री सावन सिंह जी महाराज ने (जो श्री खेमामल उर्फ शाहमस्ताना जी के पूज्य गुरु जी थे। श्री शाहमस्ताना जी ने ही बेगु रोड़ सिरसा में धन-धन सतगुरु-सच्चा सौदा पंथ की स्थापना की है) पुस्तक ‘सार वचन नसर व वार्तिक‘ वाले विवरण का समर्थन लेकर ‘संतमत प्रकाश‘ पुस्तक के कई भागों की रचना कर डाली, जिनमें सद्ग्रन्थों के विरूद्ध कोरा अज्ञान भरा है। 

जैसे श्री शिवदयाल जी ने उपरोक्त पुस्तकों में वचन-4 में कहा है कि सतनाम को सारनाम, सारशब्द, सतनाम, सतलोक तथा सतपुरूष कहते हैं। इसी आधार से श्री सावन सिंह जी ने संतमत प्रकाश भाग-3 पृष्ठ-76 पर कहा है कि सतनाम को सतलोक कहते हैं। फिर पृष्ठ-79 पर लिखा है कि सतनाम चौथा राम है, यह असली राम है। श्री शिवदयाल जी महाराज के वचनों के आधार से श्री सतनाम सिंह जी द्वितीय गद्दीनशीन डेरा धन-धन सतगुरू सच्चा सौदा सिरसा वाले ने पुस्तक ‘सच्चखंड की सड़क’ पृष्ठ  226 पर लिखा है कि सतलोक महाप्रकाशवान है। इसी को सतनाम, सारनाम, सारशब्द भी कहते हैं।

उपरोक्त ज्ञान से स्पष्ट है कि इन पंथों के सन्तों को कोई ज्ञान नहीं था। जिनकी लिखित कहानियाँ ही गलत है तो क्रियाऐं भी गलत हैं। जिनकी थ्यूरी ही गलत है तो प्रैक्टीकल भी गलत है। हमने पवित्र अमृतवाणी श्री नानक साहेब जी तथा अमृतवाणी परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) जी तथा जिन संतों को कविर्देव (कबीर प्रभु) स्वयं मिले तथा तत्वज्ञान से परिचित कराया उनकी अमृतवाणी को आधार मान कर सत्य का ग्रहण करना है तथा असत्य का परित्याग करना है।

उदाहरण: जैसे कोई गणित के प्रश्न को हल कर रहा है और वह सही नहीं हो पा रहा है तो उसका सही हल ढूंढने के लिए मुख्य व्याख्या को ही आधार मान कर पुनर् पढ़ा जाता है। तब वह प्रश्न हल हो जाता है। यदि गलत किए हुए प्रश्न के हल को ही आधार मान कर प्रयत्न करते रहेंगे तो समाधान असंभव है। इसी प्रकार पूर्व संतों व ऋषियों द्वारा लिखी अपने अनुभव की पुस्तकों के स्थान पर सद्ग्रन्थों को ही आधार मान कर पुनर् पढ़ने व उन्हीं के आधार से साधना करन से ही प्रभु प्राप्ति व मोक्ष संभव है।

गीता जी में लिखा है कि हे अर्जुन ! जब तेरी बुद्धि नाना प्रकार के भ्रमित करने वाले शास्त्र विरूद्ध ज्ञान से हट कर एक शास्त्र आधारित तत्व ज्ञान पर स्थिर हो जाएगी तब तू योगी (भक्त) बनेगा। 

भावार्थ है कि तब तेरी भक्ति प्रारम्भ होगी। जैसे पथिक गंतव्य स्थान की ओर न जा कर अन्य दिशा को जा रहा हो उसकी वह यात्रा कुमार्ग की है। उससे वह अपने निज स्थान पर नहीं पहुच सकता। जब वह कुमार्ग त्याग कर सत मार्ग पर चलेगा तब ही उसके लिए मंजिल प्राप्त करना संभव है।
इसलिए श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि जब आप शास्त्र विरूद्ध साधना से हट कर शास्त्रानुसार साधना पर लगोगे तब आपका सत भक्ति मार्ग प्रारम्भ होगा।

विशेष विचार:- पवित्र यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 3 (जिसे गायत्री मन्त्र कहा है) की रटना लगाना (आवृत्ति करना) तो केवल परमात्मा के गुणों से परिचित होना मात्र है। उस परमात्मा की प्राप्ति की विधि भिन्न है। 

पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में तथा पवित्र गीता जी अध्याय 4 मन्त्र (श्लोक) 34 में कहा है कि 

तत्व ज्ञान को समझने अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने के ज्ञान को तत्वदर्शी सन्तों से पूछो।
पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति की विधि को वेद व गीता ज्ञान दाता प्रभु भी नहीं जानता। 

केवल अपनी साधना (ब्रह्म साधना) का ज्ञान गीता अध्याय  8 मन्त्र (श्लोक) 13 में तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र (श्लोक) 15 में कहा है। 
ओम् (ॐ ) नाम का जाप अकेला करना होता है किसी वाक्य के साथ लगा कर करने से मोक्ष प्राप्ति नहीं होती। 
इसीलिए गीता अध्याय 8 मन्त्र (श्लोक) 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का तो केवल एक ओम् (ॐ) अक्षर है अन्य नहीं है, उसका उच्चारण करके स्मरण करना है। यजुर्वेद अध्याय 36 मंत्र (श्लोक) 3 में भी ओम् (ॐ) मंत्र नहीं है। यह तो शास्त्र विरूद्ध साधना बताने वालों ने जोड़ा है जो अनुचित है। प्रभु की आज्ञा की अवहेलना है। यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति किसी मोटर गाड़ी के पिस्टन के साथ नट वैल्ड कर के कहे कि यह पिस्टन अधिक उपयोगी है तो क्या वह व्यक्ति इन्जीनियर है ?

 यही दशा अज्ञानी ऋषियों तथा सन्तों की है जो ओम् (ॐ) अक्षर को किसी वाक्य के साथ लगा कर कहते हैं कि अब यह मन्त्र अधिक उपयोगी बन गया है। जो शास्त्र विरुद्ध होने से मन-माना आचरण (पूजा) है।

पवित्र गीता जी अध्याय 16 श्लोक 23,24 में लिखा है कि – 
शास्त्र विधि त्याग कर मन-माना आचरण (पूजा) करने वाले साधक को न तो सुख होता है, न कार्य सिद्ध तथा न उनकी गति होती है। 
इसलिए भक्ति के लिए शास्त्रों को आधार मान कर सत्य का ग्रहण करें, असत्य का परित्याग करें।

उदाहरण:- जैसे विद्युत के गुण हैं कि बिजली पंखा चलाती है, अंधेरे को उजाले में बदल देती है, आटा पीस देती है आदि-आदि। इस वाक्य को बार-2 रटन से बिजली के उपरोक्त गुणों का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। बिजली का कनैक्शन लेना होता है। कनैक्शन लेने की विधि उपरोक्त महिमा से भिन्न है। बिजली का कनैक्शन लेने के बाद उपरोक्त सर्व लाभ बिजली से स्वतः प्राप्त हो जाऐंगे।

इसी प्रकार सद्ग्रन्थों के अमृत ज्ञान से परमात्मा की महिमा का ज्ञान होता है। उसे एक बार पढे़ं या सौ बार। यदि परमात्मा से लाभ प्राप्त करने की विधि पूर्ण सन्त से प्राप्त नहीं की तो सर्व ज्ञान व्यर्थ है। जैसे कोई कहे कि ‘‘खाले रे औषधि स्वस्थ हो जाएगा’’ इसी की रटना लगाता रहे (आवृत्ति करता रहे) और औषधी खाए नहीं तो स्वस्थ नहीं हो सकता। पूर्ण वैद्य से औषधि लेकर खाने से ही रोग मुक्त हो सकता है। इसी प्रकार पूर्ण सन्त से पूर्ण नाम जाप विधि प्राप्त करके गुरू  मर्यादा में रह कर साधना करने से ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है। वह पूर्ण मोक्ष दायक, पाप विनाशक शास्त्रानुकूल पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि जगत गुरू तत्वदर्शी सन्त रामपाल दास के पास है जो प्रभु प्रदत्त है। कृप्या निःशुल्क व अविलंब प्राप्त करें। अज्ञानी सन्तों व ऋषियों द्वारा बताई शास्त्राविधि रहित साधना में अपना अनमोल मानव  जीवन न गंवाऐं। कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा है !

‘‘मानव जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार।
जैसे तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर न लगता डार।।’’

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LORD KABIR
Banti Kumar
WRITTEN BY

Banti Kumar

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