दयानंद की बुद्धि में गोबर (दयानंदी जिहाद)
दयानंद मत लड़ाई में स्त्रियाँ भी धन संपदा आदि की भाँति लूटने और बाटने की वस्तु।
सत्यार्थ प्रकाश षष्ठ समुल्लास.
दयानंद लिखते है –
रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः ।
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत् ॥११॥
दयानंद इसका अर्थ लिखते हैं – ” इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे ।।११।।
वाह रे सत्यार्थ प्रकाश लिखने वाले भंगेडानंद वाह ! क्या यही है आपकी बुद्धि, यही है आपका धर्म ??
क्या लूटपाट के उद्देश्य से लडा गया युद्ध , शत्रुओं की धन संपदा और उनकी स्त्रियों का भोग करना धर्मानुकूल और वेद सम्मत है ??
यदि मनुस्मृति आपकी समझ से बाहर थी तो इसके अर्थ का अनर्थ करना जरूरी था जहाँ आशय ‘मादा पशु’ से था आपने वहाँ पशु अलग और स्त्री को अलग कर, स्त्री को लूटने वाली वस्तु बना दिया।
क्या यही है आपकी बुद्धि ??
क्या आपके अनुसार लूटपाट के उद्देश्य से लडा गया युद्ध, धन संपदा, पशुादि की भाँति स्त्रियों को लूटना धर्मानुकूल है ??
खेर इस प्रकार का निच कर्म तो स्वामी जी आप जैसे मंद बुद्धि, धूर्त को ही शोभा देता है
आपके इस भाष्य और कुरान की सूरा अनफ़ाल की आयत ६९ में कोई ज्यादा अन्तर नही है ।
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمْتُمْ حَلَٰلًا طَيِّبًا وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
(الأنفال – ٦٩)
और जो कुछ ग़नीमत(लूट) का माल तुमने प्राप्त किया है, उसे वैध-पवित्र समझकर खाओ और अल्लाह के आज्ञाकारी बनकर रहो। (सूरा- अनफ़ाल, आयत ६९)
और आप भी कुछ इसी प्रकार की बात बोलते हैं कि –
“इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे”
बल्कि आप तो इस्लाम से भी २ कदम आगे निकल गए और युद्ध में जीती हुई स्त्रियों को लूट के माल कि तरह बाटने लगें
स्वयं को वैदिक , वैदिक कहते नहीं थकनें वाले आर्य समाजीयों दयानंद के इस भाष्य के बारे में क्या कहना चाहोगे ?
तुम्हारे भगवान दयानंद तो मुहम्मद से भी दो कदम आगे निकल गये, लड़ाई में स्त्रियाँ लूटने और बाटने की बात कर रहे हैं,
स्वामी जी की मानसिकता और इस्लाम की मानसिकता में कोई ज्यादा अंतर नहीं रहा
जो दयानंद लड़ाई में स्त्रियों को लूटने और बाटने की बात करता है वो इतना भी नहीं जानता कि इस प्रकार का निच कर्म धर्मानुकूल है या फिर वेद विरुद्ध,
वो कितना बड़ा ज्ञानी होगा ये बताने की आवश्यकता नहीं है।
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खेर ये सब दयानंद की बुद्धि में भरे गोबर का नतीजा है
ये देखिए मनुस्मृति में क्या कहा गया है –
रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः ।
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत् ॥
अर्थात- राजा द्वारा युद्ध मे शत्रुओं के रथ, घोडे, हाथी, छत्र, धन-धान्य, मादा पशु तथा घी-तेल आदि जो कुछ भी जीता गया है, उचित है कि, वह सब राजा उसी प्राजा को वापस कर दे (जिस राज्य को उसने जीता है)
देखें ये प्रमाण-
जित्वा संपूजयेद्देवान् ब्राह्मणांश्चैव धार्मिकान् ।
प्रदद्यात्परिहारार्थं ख्यापयेदभयानि च ॥१॥
सर्वेषां तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम् ।
स्थापयेत्तत्र तद्वंश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम् ॥२॥
प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्मान् यथोदितान् ।
रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह ॥३॥
पार्ष्णिग्राहं च संप्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले ।
मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलमवाप्नुयात् ॥४॥
हिरण्यभूमिसंप्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते ।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम् ॥५॥
-मनुस्मृति [७/२०१-२०३, ७/२०७-२०८]
राजा द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद उसे देवताओं तथा धर्मात्मा ब्राह्मणों की पुजा कर, युद्ध से प्रजा के जिन लोगों की अन्न-धन एवं जल की हानि हुई हो, उसकी पूर्ति करनी चाहिए तथा प्रजा को अभय का विश्वास देना चाहिए॥१॥,
विजयी राजा को चाहिए कि वह पराजित राजा तथा उसके मंत्रियों के मनोरथ को जानकर, पराजित हुए राजा या उसके वंश में जन्मे योग्य पुरूष को राजगद्दी पर बैठा दे । वह पराजित राज्य में जो नियम, कानून, निषेध आदि प्रचलित हों उन पर स्वीकृति की घोषणा करवा दें ॥२॥,
विजेता राजा को चाहिए कि वह युद्ध में हारे हुए राजा के राज्य में जो धर्माचार प्रचलित हो उनकी मान्यता की घोषणा करवा दें । राजा अपने प्रमुख मंत्रियों के साथ पराजित राजा को राज्य पर अभिषिक्त कर उसे रत्न आदि भेंट में प्रदान कर॥३॥,
विजेता राजा तथा उसके सहायकों को पराजित राजा से यात्रा का फल, मित्रता आदि बहुमूल्य उपहार प्राप्त करना चाहिए ॥४॥,
क्योकि किसी से सोना अथवा भूमि लेकर राजा उतना शक्तिशाली नहीं बनता, जितना की मित्रता प्राप्त कर बनता है। दुर्बल से दुर्बल राजा भी मित्रता से बलवान बन जाता है॥५॥
अर्थात राजा को क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अपने प्राजा के हित में, दो राज्यों के मध्य शांति बनाए रखने के लिए उचित है कि वह शत्रु राजा को अपना मित्र बना लें, और ऐसे शत्रु को कभी न मारे जो वाहन से उतरकर खड़ा हो, नपुंशक हो, हाथ जोड़कर धरती पर बैठा हो, जो कहें कि मैं तुम्हारी शरण में हूँ, बिना शस्त्र धारण किए, लडने के अनिच्छुक, जो विपत्ति में हो, दुखी हो, घायल हो, भयभीत हो अथवा युद्ध छोड़ कर भाग रहा हो।
वीर क्षत्रिय राजा पराजित राजा की प्रजा के साथ भी उसी प्रकार व्यवहार करें जैसा वह अपनी प्रजा के साथ करता है
खेर ये सब बातें जिहादी दयानंद की समझ से बाहर है।
दयानंद बचपन से ही मुस्लिमों कि ही भांति कट्टरपंथी विचारधारा वाले थे, निराकार की उपासना, मुर्ति पुजा का विरोध, सनातन धर्म से अलग अपना अलग मत बनाने वाले, सनातनी देवी देवताओं, अपने माता पिता, पूर्वजों आदि का अपमान करने वाले, अपने बाप तक को धूर्त, पाखंडी, मुर्ख बोलने वाले, वेद विरोधी, धर्म विरोधी, धर्म ग्रंथों का अपमान करने वाले नशेडी, गंजेडी, भंगेडी, ब्राह्मण सन्यासी होते हुए भी लाश की चिर फाड जैसा निच कर्म करने वाले, लूटपाट के समर्थक, भारतवर्ष की समस्त स्त्रियो का अपमान करने वाले, एक स्त्री के ग्यारह पति बताकर उनके पतिव्रत धर्म को खंडित करने वाले, स्त्रियों को लूटने बाटने की वस्तु समझने वालें, अपना मत दुसरों पर थोपने वाले,
अपने मत से भिन्न सभी मतों का अपमान करने वाले आदि आदि ऐसे व्यक्ति से ऐसे ही भाष्य की उम्मीद कि जा सकती है।
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