भक्ति की महिमा
आदरणीय गरीबदास जी महाराज कहते हैं:
पूर्ण ब्रह्म रटै अविनाशी, जो भजन करे गोबिन्द रे,
भाव भक्ति जहाँ हृदय होई, फिर क्या कर है सूरपति इन्द रे
भावार्थ :
पूर्ण ब्रह्म में बिल्कुल समर्पण करके फिर उस गोबिन्द की भक्ति करे, लोक दिखावा करके नहीं, भाव भक्ति से, अन्तःकरण से भक्ति करे, परमात्मा के नाम पर एक सच्ची कसक बना के, एक सच्ची तड़फ बना के भजन किया जाये, उसको भाव भक्ति कहते हैं, यानी विशेष भावुक होके भजन करा जाए। तो उसके सामने सुरपति, यानी देवताओं का राजा ईन्द्र भी फेल हैं।
जब आपके अन्दर से एक सच्ची लगन और सच्ची उमंग, और एक विशेष कसक आती है प्रभू की भक्ति में,
वो जो लहर आप में बन गईं तो यहाँ का कोई सुख आपको अच्छा नहीं लगेगा और ना आपको कोई धन की आवश्यक्ता महसूस होगी, केवल कल्याण चाहियेगा
कबीर साहेब जी कहते हैं:
साँईं यो मत जानियो, प्रीत घटे मम चित्।
मरूँ तो तुम सुमरत मरूँ, जिवित सूमरुँ नित् ।।
भावार्थ:
परमेश्वर कबीर जी अपनी महिमा आप ही बता रहे हैं भजन करने की,
कहते हैं ऐसे मज़ाक में हीें भक्ति मत करना,
ऐसे मत जानना भगवान के नाम को, वर्ना हमारे हृदय से भगवान की वो आस्था हट जाऐगी ,
और कबीर साहेब जी कहते हैं कि हे परमात्मा अन्त समय में मरूँ तो तूझे सूमरता हुआ ही मरूँ मालिक, और जिवीत रहूँ तो नित् तेरी याद कसक के साथ करूँ मालिक।