विश्नोई समुदाय और जम्भेश्वर की भक्ति और भविष्यवाणी

Rate This post❤️

सन्त जम्भेश्वर को परमात्मा जिन्दा महात्मा के रूप में समराथल में मिले थेः-

  1. जैसा कि वेदों में प्रमाण है कि परमात्मा सत्यलोक में रहता है, वहाँ से गति करके पृथ्वी पर प्रकट होता है, अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनको आध्यात्मिक यथार्थ ज्ञान देता है, कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी पर विचरता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवियों में से भी एक कवि होता है। वह कवि की उपाधि प्राप्त करता है, परमात्मा गुप्त भक्ति के मन्त्र को उद्घृत करता है जो वेदों व कतेबों आदि-आदि पोथियों में नहीं होता।
    प्रमाण :- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1
  • ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26-27
    ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 1, 2
    ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3
    ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1
    ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मन्त्र 2

श्री जम्भेश्वर महाराज जी ने बताया है कि जो परमात्मा जिन्दा महात्मा के रूप में हजरत मुहम्मद जी को काबा (मक्का) में उस समय मिला था जिस समय मुहम्मद जी हज के लिए मक्का में गए थे और उनको जगाया था कि मन्दिर-मक्का, आदि तीर्थ स्थानों पर चक्कर लगाने से परमात्मा नहीं मिलता, परमात्मा प्राप्ति के लिए मन्त्र जाप की आवश्यकता है। श्री जम्भेश्वर जी महाराज ने फिर बताया है कि वही परमात्मा थल सिर (समराथल) स्थान (राजस्थान प्रान्त) में आया और मुझे जगाया? न जाने कितने व्यक्ति और जागेंगे जैसे मेरा समराथल प्रसिद्ध है। यह मेरी निज वाणी यानि विशेष वचन है। मैंने अपनी अनुभव की खास (निज) यथार्थ वाणी बोलकर समराथल के व्यक्तियों में परमात्मा भक्ति की जाग्रति लाई है, सत्य से दूर होकर मुसलमान अभी भी काबे में हज करने जाते हैं, वहाँ धोक लगाते हैं, पत्थर को सिजदा करते हैं जो व्यर्थ है। इसी प्रकार हिन्दू भी तीर्थ पर जाते हैं, भूतों की पूजा करते हैं, पिण्ड भराते हैं, यह व्यर्थ साधना है।

सन्त श्री जम्भेश्वर जी महाराज ने 29 नियम बनाकर स्वच्छ साधक समाज तैयार किया था जो 29 (बीस नौ = 29) नियमों का पालन करते थे तथा श्री जम्भेश्वर जी के द्वारा बताए नाम का जाप करते थे, वे बिश्नोई (29 नियमों का पालन करने वाले) कहलाते थे। वर्तमान में “बिश्नोई” शायद ही कोई होगा? क्योंकि समय तथा परिस्थिति बदलती रहती हैं। उसी अनुसार मानव का व्यवहार, आचार-विचार बदल जाता है। इसका मुख्य कारण सन्त का अभाव होता है। श्री जम्भेश्वर जी महाराज के स्वर्ग धाम जाने के पश्चात उनके जैसा सिद्धी-शक्ति व भक्ति वाला महापुरूष नहीं रहा, जिस कारण से मर्यादा पालन नहीं हो पा रही। वर्तमान में “बिश्नोई” धर्म के अनुयायी केवल तीर्थ भ्रमण को ही अधिक महत्व देते हैं तथा उन तीर्थ मुकामों पर ही हवन आदि करके अपने को धन्य मानते हैं। तीर्थ उस स्थान को कहते हैं जहाँ किसी सन्त ने अपने जीवन काल में साधना की हो तथा कुछ करिश्में दिखाए हों तथा जन्म-स्थान व निर्वाण स्थान भी तीर्थ स्थान व यादगार कहे जाते हैं। मुकाम, धाम ये यादगार हैं, इनका होना भी अनिवार्य है क्योंकि जिसकी घटनास्थली है, उसकी याद बनी रहती है तथा सत्यता की प्रतीक वे घटना स्थली होती हैं, परन्तु साधना-भक्ति बिना जीवन की सार्थकता नहीं है, पूर्ण गुरू की खोज करके उसके बताए मार्ग पर चलकर जीवन सफल बनाऐं क्योंकि प्रत्येक महापुरूष ने गुरू बनाया है, गुरू भी वक्त गुरू हो जो अपने मुख कमल से भक्ति विधि बताए। कुछ समय बीत जाने पर प्रत्येक धर्म में भक्तिविधि बदल दी जाती है, वह हानिकारक होती है। उदाहरण के लिए :-

सन्त श्री जम्भेश्वर जी महाराज के 120 शब्द हैं जो उनके श्री मुख कमल से उच्चारित अमृतवाणी हैं। वर्तमान में प्रत्येक शब्द के प्रारम्भ में “ओम्” अक्षर लगा दिया जो गलत है तथा सन्त जी का अपमान है। यदि “ओम्” शब्द बिना ये शब्द वाणी सार्थक नहीं होती तो श्री जम्भेश्वर जी ही लगाते। जैसे कम्पनी
मोटर साईकल का पिस्टन बनाती है, वह पूर्ण रूप से सही होता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी समझ से उस पिस्टन के साथ कोई नट वैल्ड करके चतुरता दिखाए तो कितना ठीक है? व्यर्थ। इसी प्रकार सन्त जम्भेश्वर जी की वाणी के साथ “ओम्” लगाकर पढ़ना भी लाभ के स्थान पर हानि करता है।

इसी प्रकार एक गायत्री मन्त्र बना रखा है जिसे हिन्दू धर्म के व्यक्ति श्रद्धा से जाप करते हैं। मन्त्र इस प्रकार बिगाड़ा है = ‘‘ओम् भूर्भव स्वः तत्सवितुर् वरेणियम् भर्गोदेवस्य धीमहि धीयो यो न प्रचोदयात्‘‘। वास्तव में यह यजुर्वेद अध्याय 36 का मन्त्र 3 है, इसके पहले “ओम्” अक्षर नहीं है। वेद वाणी भगवान द्वारा दी गई है, इसके आगे “ओम्” अक्षर लगाना भगवान का अपमान करना है, पिस्टन को नट वैल्ड करना मात्र है जो व्यर्थ है।

सन्त श्री जम्भेश्वर जी ने शब्द सख्ंया = 69 में कहा है कि वेदों तथा पुराणों में वह यथार्थ भक्ति मार्ग नहीं है। इनको ठीक से न समझकर भूतों की पूजा शुरू कर दी है। उस अपरमपार परमात्मा को क्यों नहीं जपते जो संसार रूपी वृक्ष की मूल (जड़) है। मूल की पूजा न करके डाल व पात की पूजा व्यर्थ है, जिससे जम व काल से नहीं बच सकता (जम = जन्म, काल= मौत) अर्थात् जन्म-मरण समाप्त नहीं हो सकता।

बिश्नोई धर्म के अनुवादकर्ता शब्द न. 50 की अमृतवाणी,
इस पंक्ति का भावार्थ कैसे करते हैं :-

दिल दिल आप खुदाबंद जाग्यो, सब दिल जाग्यो सोई।
जो जिन्दो हज काबे जाग्यो, थलसिर जाग्यो सोई।।

गलत भावार्थ करते हैं कि जो परमात्मा मुहम्मद जी को काबे में मिला था वही श्री सन्त जम्भेश्वर जी ही समराथल में आए थे। यदि ऐसा अर्थ होता तो सन्त जम्भेश्वर जी का जन्म तो पवित्र गाँव पीपासर में हुआ था, वे तो वहाँ पहले ही आ चुके थे, समराथल में तो बाद में गए हैं, फिर लालासर में निर्वाण हुआ है। वास्तविक अर्थ पूर्व में लिख दिया है, वह ही सही है। फिर भी जिन महान आत्माओं को परमात्मा मिले हैं, वे पूर्ण सन्त होते हैं, परन्तु सत्य भक्ति अधिकारी के बिना तथा समय बिना नहीं बताते। सन्त जम्भेश्वर जी स्वयं जो नाम जाप करते थे, वह बिश्नोई धर्म में की जाने वाली आरती सँख्या 8 में प्रथम पंक्ति में लिखा है जो इस प्रकार है। आरती-8 :-

“ओम् शब्द सोहंग ध्यावे। प्रभु शब्द सोहंग ध्यावै”

परन्तु इस मन्त्र का जाप कैसे करना है, यह गुरू बिन ज्ञान नहीं होता। श्री संत जम्भेश्वर जी स्वयं उपरोक्त मन्त्र जाप करते थे, अन्य को कहते थे

“विष्णु-विष्णु भण रे प्राणी”

अर्थात् विष्णु-विष्णु जाप किया करो। कारण यह था कि जब तक अधिकारी शिष्य न हो, तब तक यह मन्त्र नहीं दिया जाता। दूसरी विशेष बात यह है कि परमात्मा जिस भी सन्त महात्मा को मिले हैं, उनको इस मन्त्र को गुप्त रखने के लिए कहा था जब तक कलयुग 5505 वर्ष न बीत जाए। सन् 1997 में कलयुग 5505 वर्ष बीत चुका है, अब यह मन्त्र दिया जाना है। इस मन्त्र को देने वाला भी पूर्ण सन्त चाहिए। इसी प्रकार श्री नानक देव जी स्वयं तो वही नाम जाप करते थे जो बिश्नोई धर्म की आरती संख्या-8 की प्रथम पंक्ति में है, परन्तु अन्य सिक्खों को कहते थे कि वाहे गुरू-वाहे गुरू जपो। कारण यही रहा है इस मन्त्र को कलियुग 5505 वर्ष बीतने तक गुप्त रखना था। अब इस मन्त्र का जाप घर-घर में होगा, इस दो अक्षर के मन्त्र को सतनाम भी कहा जाता है। यही दो अक्षर का नाम संत घीसा दास जी (गाँव-खेखड़ा, जिला-बाघपत, उत्तरप्रदेश प्रान्त) को जिन्दा रूप में प्रकट होकर परमात्मा ने बताया था। उन्होंने अपनी वाणी में कहा है कि :-

ओहंग सोहंग जपले भाई। राम नाम की यही कमाई।।

सन्त गरीब दास जी गाँव छुड़ानी जिला झज्जर (हरियाणा) वाले को भी परमात्मा जिन्दा महात्मा के वेश में जंगल में मिले थे। उनको भी यह मन्त्र जाप करने को दिया था जो सन्त गरीब दास जी की अमृत वाणी में लिखा है :-

‘‘राम नाम जप कर स्थिर होई, ओम सोहं मंत्र दोई‘‘

परन्तु गरीब दास जी ने अन्य को यह मन्त्र जाप करने को नहीं दिया। केवल एक सन्त को दिया उस को सख्त हिदायत दी गई कि तुम भी केवल एक अपने विश्वास पात्र शिष्य को देना। इसी प्रकार वह आगे एक शिष्य को दे। इसी परम्परा के चलते यह मन्त्र केवल मेरे पूज्य गुरूदेव सन्त रामदेवानन्द जी महाराज तक आया। फिर उन्होंने मुझे दिया तथा आगे नाम देने का आदेश 1994 में दिया। 1997 में परमात्मा भी मुझे (बंदीछोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी को) मिले, यह नाम तथा सार नाम देने की आज्ञा दी। वर्तमान समय मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम समय है।।

“बिश्नोई धर्म की भक्ति”

प्रश्नः- बिश्नोई धर्म में क्या भक्ति होती है? इसके प्रवर्तक कौन महापुरूष थे?
उत्तरः- बिश्नोई धर्म के प्रवर्तक श्री जम्भेश्वर जी महाराज हैं। उनका जन्म गाँव पीपासर (राजस्थान प्रांत में भारत वर्ष) में हुआ, इनका भक्तिस्थल गाँव = समराथल (राजस्थान) में है तथा निर्वाण स्थल गाँव लालासर (राजस्थान) के पास में है जिसे मुकाम कहते हैं। (मुकाम का अर्थ स्थान है।)

बिश्नोई धर्म में भक्तिः- श्री जम्भेश्वर जी को श्री विष्णु जी (सतगुण विष्णु) का अवतार माना गया है जो स्वयं श्री जम्भेश्वर जी ने अपनी अमृतवाणी में बताया है।
प्रमाण :- शब्द वाणी श्री जम्भेश्वर जी के शब्द सं. 94, 54, 67, 116 बिश्नोई धर्म में श्री विष्णु जी तथा श्री कृष्ण जी (जो श्री विष्णु सतगुण के अवतार थे) की भक्ति करने के लिए श्री जम्भेश्वर जी ने अपने मुख कमल से आदेश फरमाया है। बिश्नोई धर्म की भक्ति से स्वर्ग प्राप्ति (बैकुंठवास) ही अन्तिम
लाभ है, यह भी अमृत वाणी में प्रमाण है।
प्रमाण :- शब्द वाणी सँख्या 13, 14, 15, 23, 25, 31, 33, 34, 64, 67, 78, 97, 98, 102, 119, 120 श्री विष्णु जी को संसार का मूल जड़ अर्थात् पालन करता कहा है।।

“सतगुरू से नाम दीक्षा लेकर भक्ति करें”

वाणी शब्द सँख्या = 30
श्री जम्भेश्वर महाराज जी का आदेश है कि गुरू से नाम लेकर भक्ति करने से लाभ होगा, पहले गुरू की परख करो, गुरू बिन दान नहीं करना चाहिए, गुरू ही दान के लिए सुपात्र हैं, कुपात्र को दान नहीं देना चाहिए।
प्रमाण :- शब्द वाणी संख्या :- 1, 23, 26, 29, 30, 35, 36, 37, 40, 41, 45, 77, 85, 86, 90, 91, 101, 107, 108, 120, 56
कुपात्र को दान देना व्यर्थ :- विशेष विवरण = शब्द वाणी सँख्या 56 में है। जिसमें कहा है कि कुपात्र को दान देना तो ऐसा है जैसे अँधेरी रात्रि में चोर चोरी कर ले गया हो और सुपात्र को दान देना ऐसा है जैसे उपजाऊ खेत में बीज डाल दिया हो। बिश्नोई धर्म में तीर्थ पर जाना, वहाँ स्नानार्थ जाना, पिण्ड भराना (पिण्डोदक क्रिया) आदि-आदि पूजाओं का निषेध है। प्रमाण :- शब्द वाणी सँख्या = 50

 श्री जम्भेश्वर महाराज जी को परमात्मा जिन्दा के रूप में गाँव समराथल में मिले थे। प्रमाण :- शब्द वाणी सं. 50, 72, 90

 वेद शास्त्रों में पूर्ण मोक्ष मार्ग नहीं है :- प्रमाण – शब्द वाणी सं. 59 92

 भक्ति बिना राज-पाट तथा सर्व महिमा व्यर्थ है :- प्रमाण वाणी सं. 60

श्री जम्भेश्वर जी की शब्द वाणी सं. 102 में लिखा है :-

विष्णु-विष्णु भण अजर जरी जै,
धर्म हुवै पापां छुटिजै।
हरि पर हरि को नाम जपीजै,
हरियालो हरि आण हरूं,
हरि नारायण देव नरूं।
आशा सास निरास भइलो,
पाइलो मोक्ष दवार खिंणू।।

भावार्थ :- इसमें कहा है कि “हिरयालो हरि आण हरुं” इसमें “हरियालो” शब्द का अर्थ हरियाणा है। उस समय हरियाणा प्रांत नहीं था। इसलिये “हरियालो” लिख दिया गया है। इस पंक्ति का अर्थ कि “हरि अर्थात् परमात्मा हरियालो यानि हरियाणा प्रांन्त में आऐंगे।” परमात्मा जिसे नारायण कहते हैं। वे नर अर्थात् साधारण मनुष्य का रूप धारण करके आऐंगे। वैसे नारायण का अर्थ है जल पर प्रकट होने वाला, वह केवल परमेश्वर ही है। इसलिए परमात्मा को नारायण कहा जाता है। उनके द्वारा बताए ज्ञान से निराश भक्तों की आशा जागेगी और मोक्ष का द्वार प्राप्त होगा। भावार्थ है कि शास्त्र विरूद्ध साधना करने से साधक भक्ति करके भी कोई लाभ प्राप्त नहीं कर रहे थे, परमात्मा हरियाणा में आऐंगे। उनके द्वारा बताई शास्त्रोक्त भक्ति की साधना से मोक्ष का द्वार प्राप्त होगा तथा निराशों को आशा होगी कि अब यहाँ भी सुख मिलेगा तथा प्रलोक में भी तथा मोक्ष प्राप्ति अवश्य होगी।

Banti Kumar: 📽️Video 📷Photo Editor | ✍️Blogger | ▶️Youtuber | 💡Creator | 🖌️Animator | 🎨Logo Designer | Proud Indian

This website uses cookies.