सत्यार्थ प्रकाश तृतीया समुल्लास का सच
दयानन्द जी लिखते हैं कि-
“षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥
-यह मनुस्मृति [३/१] का श्लोक हैं॥
अर्थ-आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्यन्त अर्थात् एक-एक वेद के सांगोपांग पढ़ने में बारह-बारह वर्ष मिल के छत्तीस और आठ मिल के चवालीस अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिल के छब्बीस वा नौ वर्ष तथा जब तक विद्या पूरी ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य रक्खे।”
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समीक्षा- यदि स्वामी मुर्खानन्द जी के द्वारा किया यह अर्थ किसी विद्वान व्यक्ति के समझ में आ जाए तो मुझे अवश्य समझायें, क्योकि स्वामी मुर्खानंद जी द्वारा किया गया यह कल्पित अर्थ बुद्धिमान लोगों की समझ से परें है, स्वामी जी ने इसमें स्वयं ही कल्पना करकें मिथ्या अर्थ तैयार किया है, प्रथम तो कोई इनसे यह पूछे कि यह इतना लम्बा चौड़ा अभिप्राय कौन से अक्षरों से सिद्ध होता है, और जो यह आठ, छब्बीस और चवालीस जो अर्थ किया है यह अर्थ किन पदो से सिद्ध होता है, या फिर भंग के नशे में उल्टा सिधा जो भी मुहँ में आया सो बक दिया और जो मन किया सो लिख दिया, क्योकि इस श्लोक का तुमने जो अर्थ किया है उसका यह अर्थ तो कतई नहीं बनता,
देखिए सही अर्थ इस प्रकार है-
षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥
(गुरौ) गुरूकुल में ब्रह्मचारी को, (षट्त्रिशदाब्दिकं) छत्तीस वर्ष तक निवास करकें, (त्रैवैदिकं व्रतम्) तीनों वेदों (ऋक्, यजु और साम) का पूर्ण अध्ययन, (चर्य्यं) करना चाहिए। छत्तीस वर्ष तक सम्भव न होने पर (तद् अर्धिकम्) उसके आधे अर्थात अट्ठारह वर्ष तक, (वा) या उतना भी सम्भव न होने पर, (पादिकं) उसके आधे अर्थात नौ वर्ष तक, (वा) या उतने काल तक जितने में, (ग्रहण अन्तिकम्) वेदों में निपुणता प्राप्त हो सके रहना चाहिए ॥
अब बोलिए स्वामी भंगेडानंद जी क्या बोलते हैं ? इस श्लोक से तो आपका अर्थ किंचित् मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता, इससे ही आपकी बुद्धि का पता लगता है और मैं तो कहता हूँ कि आप में बुद्धि ही नहीं थी यदि होती तो इस प्रकार अपनी कल्पना से मिथ्या अर्थ कर कम अक्ल, अक्ल से पैदल समाजीयों का आप बेवकुफ नही बनाते
धन्य है ऐसे दो कौड़ी के भाष्यकार और धन्य है ऐसे मिथ्या भाष्यों को मानने वाले कम अक्ल, अक्ल से पैदल समाजी !
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