सुरति निरति सें झीनां कछू नजरि न आवै,
पट्टन घाट परम पद पैड़ी उतरैंगे प्रबीनां।।टेक।।
शब्द महोदधि गरजत है रे, दिल दरिया दुरबीनां।
पाख महोबति लाय पुरुष सैं, स्वाफ करौ तन सीनां।।1।।
कुंभक रेचक राम रसायन, उलटी पवन चढीनां।
अर्थ धर्म और काम मोक्ष होहि, कारज सकल सरीनां।।2।।
जनम जौहरी कै घर पाया, परखि लाल दुरबीना।
तीन लोक का राज दिया तौ, सुरपति कहा कमीनां।।3।।
गर्ब गुमान दूरि करि बौरे, याह तौ बात भली ना।
आधीनी की राह पकरि लेह, होय रहु सब सें हीना।।4।।
बड़े बड्यौं तौ मूल गंवाया, छोटे भर्या करीना।
कामधेनु काया कै माहीं, अमृतृ दुहि करि पीना।।5।।
तन के जोगी मन के भोगी, इन्द्री नहीं कसीना।
सुरति निरति दरबारि हंसनी, महलौं नहीं धसीना।।6।।
जै सिर जाय सिरड़ नहिं दीजै, यौह पद अजर जरीना।
सतगुरु सार वसतु बतलावै, पारस लौह घसीना।।7।।
दर्दबंद दरबेश समझि हैं, मूरख खांहि कलीना।
जिन्ह कूं तौ दीदार कहां है, आत्म बिरह जरीना।।8।।
रूम रूम में द्वार देहरी, जैसैं अंग पसीना।
ऐसैं ररंकार रटि बौरे, ओम-सोहं सुमरिना।।9।।
मानसरोवर कै जल न्हावौ, छाड़ौ मकर महीनां।
ब्रह्मा बिष्णु खवासी करि हैं, गरीबदास कह दीनां।।10।।