यौह सौदा फिरि नाहीं संतौ, यौह सौदा फिरि नाहीं।।टेक।।
लोहे के सा ताव जात है, काया देह सिरांहीं।
यौह दम टूटै पिण्डा फूटै, लेखा दरगह मांही।।1।।
तीनि लोक और भवन चतुरदश, यौह जग सौदे आई।
दूनें तीनें किये चैगनें, किनहीं मूल गंवाई।।2।।
उस दरगह में मार परैगी, जम पकरैंगे बांहीं।
वा दिन की मोहि डरनी लागै, लज्या रहै क नाहीं।।3।।
नर नारायन देह पाय करि, फिरि चैरासी जांही।
जा सतगुरु की मैं बलिहारी जामन मरन मिटांहीं।।4।।
कुल परिवार सकल कबीला, मसलति एक ठहराई।
बांधि पिंजरी आगै धरिया, मडहट में ले जांहीं।।5।।
अगनि लगाय दिया जदि लंबा, फूकि दिया उस ठांहीं।
बेद बांधि करि पंडित आये, पीछै गरुड़ पढाहीं।।6।।
नर सेती फिरि पशुवा कीजै, गदहा बैल बनाई।
छप्पन भोग कहां मन बौरे, कुरड़ी चरनैं जाई।।7।।
प्रेतशिला परि जाय बिराजे, पितरौं पिण्ड भरांहीं।
बहुरि शराध खांन कूं आये, काग भये कलि मांही।।8।।
जै सतगुरु की संगत करते, सकल कर्म कटि जांहीं।
अमरपुरी में आसन होते, ना जहां धूप न छांहीं।।9।।
सुरति निरति मन पवन पियाना, शब्दें शब्द समाई।
Garibdas Ji
गरीबदास गलतान महल में, मिले कबीर गोसांई ।।10।।