साहेब कबीर द्वारा भैंसे से वेद मन्त्र बुलवाना
एक समय तोताद्रि नामक स्थान पर विद्वानों (पंडितों) का महासम्मेलन हुआ। उसमें दूर-दूर के ब्रह्मवेता, वेदों, गीता जी आदि के विशेष ज्ञाता महापुरुष आए हुए थे।
उसी महासम्मेलन में वेदों और पुराणों तथा शास्त्रों व
गीता जी के प्राकाण्ड ज्ञाता महर्षि स्वामी रामानन्द जी भीआमन्त्रिात किए गए थे। स्वामी रामानन्द जी के साथ उनके परम शिष्य साहेब कबीर भी पहुँच गए। श्री रामानन्द जी साहेब कबीर को अपने साथ ही रखतेथे। क्योंकि स्वामी रामानन्द जी जानते थे कि यह कबीर (कविर्देव) साहेब परम पुरुष हैं। इनके रहते मुझे कोई ज्ञान और सिद्धि में पराजितनहीं कर सकता।
सम्मेलन में इस बात की विशेष चर्चा हो गई कि श्री रामानन्द जी के शिष्य कबीर साहेब (छोटी जाति के)
जुलाहा हैं।
यदि हमारे भण्डारे में भोजन करेंगे तो हम अपवित्र हो जाएंगे। हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। यदि सीधे शब्दों में मना करेंगे तो हो सकता है श्री रामानन्द जी नाराज हो जाऐं क्योंकि श्री रामानन्द जी उस समय के जाने-माने विद्वानों में से एक थे।
यहसोच कर एक युक्ति निकाली कि भण्डारा दो स्थानों पर शुरु किया जाए। एक तो पंडितों के लिए, जो पंडितों (ब्राह्मणों) वाले भण्डारे में प्रवेश करे उसे चारों वेदों के एक-2 मंत्र संस्कृत में सुनाने पड़ेंगे।
ऐसा न करने वालों को दूसरे भण्डारे में जो आम संगत (साधारण व्यक्तियों) के लिए बना है में जाएंगे। क्योंकि उनका मानना था कि श्री रामानन्द जी तो विद्वान (पंडित) हैं। वेद मंत्र सुना कर उत्तम भण्डारे में आ जाएंगे तथा साहेब कबीर (कविर्देव) ऐसा नहीं कर पाएगें क्योंकि उन्हें वे पंडितजन अशिक्षित मानते थे। अपने आप आम (साधारण) भण्डारे में चले जाएंगे। फिर सतसंग (प्रवचन)चल रहा था।
उसमें वही उपस्थित पंडित जन संगत में
मीठी-2 बातें बना कर कथाएँ सुनारहे थे कि –
एक अछूत जाति की भीलनी (शबरी) परमात्मा के वियोग में वर्षों से तड़फ-2 कर राहजोह रही थी कि मेरे भगवान राम आएंगे। मैं उन्हें बेरों का भोग लगवाऊँगी।
प्रतिदिन बहुत दूर तक रास्ता बुहार कर आती है। कहीं मेरे भगवानको कांटा न लग जाए। एक दिन वह समय भी आ गया कि भगवान श्रीरामचन्द्र जी आते दिखाई दिए।
भिलनी सुध-बुद्ध भूल कर श्री रामचन्द्र जी के मुख कमलकी ओर बावलों की तरह निहार रही
है। श्री राम व लक्ष्मण खड़े-2 देख रहे हैं।
इस पर लक्ष्मण ने कहाशबरी भगवान को बैठने के लिए भी कहेगी या ऐसे ही ठडेसरी (खड़े तपस्वी)बनाए रखेगी। तब मानो नींद से जागी हो।
हड़बड़ा कर अपने सिर का फटा पुराना मैला- कुचैला चीर उतार कर एक पत्थर के टुकड़ेपर बिछा दिया और कहा कि
भगवन! बैठो इस पर।
श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि नहीं बेटी, चीर उठाओ यह कह कर उसका चीर उठा कर उसी के सिर पर रखना चाहा।
भिलनी (शबरी) रोने लगी और रोती हुई ने कहा यह गन्दा (मैला) है न भगवान! इसलिए स्वीकार नहीं किया न।
मैं कितनी अभागिन हूँ। आपके लिए उत्तम कपड़ा नहीं ला सकी। क्षमा करना भगवन। यह कह कर आँखों से अश्रुधार बह चली।
तब श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि शबरी! यह कपड़ा मेरे लिए मखमल से भी अच्छा कपड़ा है। लाओ बिछाओ!
फिर भगवान उसी मैले कुचैले चीर पर विराजमान हो गए और शबरी के आँसुओं को अपने पिताम्बर से पौंछने लगे।
फिर शबरी ने बेरों का भोग भगवान को लगवाया। पहले बेर को स्वयं थोड़ा सा खाती (चखती) है फिर वही बेर श्री राम को अपने हाथों से खिला रही है।
भगवान श्री राम ने उस काली कलूटी, लम्बे-2 दाँतों वाली मैली कुचैली, अछूत शबरीके हाथ के झूठे बेरों का भोग रूचि-2 लगाया तथा कहा शबरी, बहुत स्वादिष्ट हैं। क्या मिलाया है इन बेरो में?
शबरी ने कहा आपका प्यार मिलाया है आपकी बेटी ने।
फिर लक्ष्मण को भी दिए कि खाओ बेर। लक्ष्मण ग्लानि करके श्री राम जी के भय से खाने का बहाना करके हाथ मेंलेकर पीछे फैंक देता है। जो बाद में द्रौणागिरी पर (शबरी के झूठे बेर)संजीवनी बूटी बन गए और लक्ष्मण के युद्ध में मूर्छित हो जाने
पर वही बेर फिर खाने पड़े।
भक्तकी भावना का अनादर हानिकारक होता है।
जब आस-पासके ऋषियों को मालूम हुआ कि श्री राम आए हैं।
वो हमारे यहाँ आश्रमों में अवश्य आएंगे क्योंकि हम ब्राह्मण हैं और भगवान श्री राम (शत्रिय हैं) अवश्य आएंगे। जब ऐसा नहीं हुआ तो सर्व ऋषि जन बन में साधना करने वाले (कर्मसन्यासी) श्री राम को मिले तथा कहा भगवन! एक ही नदी है जो साथ बह रही
है।
उसका पानी गंदा हो गया है।कृपया इसे स्चच्छ
करने की कृपा करें।
श्री राम ने कहा कि आप सर्व योगी जन बारी-2 अपना दायां पैर नदी के जल में डुबोएँ। फिर निकाल लें। सब उपस्थित ऋषियों ने ऐसा ही किया। परंतु जलनिर्मल नहीं हुआ।
फिर श्री राम ने उस प्रेमभक्ति युक्त शबरी से कहा
आप भी ऐसा ही करें।
तब शबरी ने अपने दायां पैर नदी के जल में डाला तो उसी समय नदी का जल निर्मल हो गया। सर्व उपस्थित साधुजन शबरी की प्रशंसा करने लगे तथा शर्मिन्दा होकर श्री राम से पूछा कि
प्रभु! क्या कारण है जो इस अछूत के स्पर्श मात्रा से जल निर्मल हुआ जबकि हमारे से नहीं।
तब श्री राम ने कहा – जो व्यक्ति परमात्मा
का सच्चे प्रेम से भजन करता है तथा विकारों से रहित है वह उच्च प्राणी है। जाति ऊँची नीची नहीं होती है। आपको भक्ति साधना के साथ-2 जाति अहंकार भी है जो भक्ति का दुश्मन है।
गीता जी भी यह सिद्ध करती है कि कर्मसन्यासी (गृहत्यागी) को अपनेकत्र्तापन का अभिमान हुए बिना नहीं रहता।
इसलिए कर्मयोगी (ब्रह्मचारी या गृहस्थी कार्य करते.2 साधना करने वाला) भक्त कर्म सन्यासी (गृहत्यागी) भक्तों से श्रेष्ठ हैं तथा जो पूर्ण परमात्मा की भक्ति करते हैं वो सर्वोंत्तम हैं।
कबीर साहेब कहते हैं कि —
“कबीर, पोथी पढ-2 जग मुआ, पंडित भया न कोय।अढ़ाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय।।”
प्रेम में जाति कुल का कोई अभिमान नहीं रहता है।
केवल अपने महबूब का ही ध्यान बना रहता
है।
(सतसंग समाप्त हुआ)
सत्संग समाप्न के पश्चात् भण्डारे का समय हुआ। दो ब्राह्मण वेदों के मन्त्र सुनने के लिए परीक्षार्थ पंडितों वाले भण्डार के द्वार पर खड़े हो गए तथा परीक्षा लेकर वेद मन्त्र सुन कर भण्डारे में प्रवेश करवा रहे थे।
साहेब कबीर (कविरग्नि) भी पंक्ति में खड़े अपनी वारी का इन्तजार कर रहे थे।
जब साहेब कबीर की बारी आई उसी
समय एक पास में घास चर रहे भैंसे को साहेब कबीर ने पुकारा –
ऐ भैंसा! कृप्या इधर आना।
इतना कहना था कि भैंसा दौड़ा-2 आया तथा साहेब कबीर के चरणों में शीश झुका कर अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा।
तब कविर्देव ने उस भैंसे कीकमर परहाथ रखकर कहा कि –
हे भैंसा! चारों वेदों का एक-2 श्लोक सुनाओ! उसी समय भैंसे ने शुद्ध संस्कृत भाषा में चारों वेदां के एक-2 मन्त्र कह सुनाए।
साहेब कबीर ने कहा – भैंसा इन श्लोकों का
हिन्दी अनुवाद भी करो, कहीं पंडित जन यह न सोच बैठें कि भैंसा हिन्दी नहीं जानता।
भैंसे ने साहेब कबीर की शक्ति से चारों वेदों के एक-2 मन्त्र का हिन्दी अनुवाद भी कर दिया।
कबीर साहेब ने कहा – जाओ भैंसा पंडित! इन उत्तम
जनों के भण्डारे में भोजन पाओ। मैं तो उस साधारण भण्डारे में प्रसाद पाऊँगा।
कबीर साहेब जी की यह लीला देखकर सैकड़ों कथित पंडितों ने नाम लिया तथा आत्म कल्याण करवाया और अपनी भूल का पश्चाताप किया।
साहेब कबीर ने कहा
नादानों कथा सुना रहे थे शबरी और श्री राम की, आप समझे नहीं। अपने आप को उच्च समझ कर भक्त आत्माओं का अनादर करते हो। यह आप भक्तों का अनादर नहीं बल्कि भगवान का अनादर करते हो।
जो गीता जी में कहते हैं कि अर्जुन कोई व्यक्ति
कितना ही दुराचारी हो यदि वह भगवत विश्वासी है, साधु समान मान्य है।
गरीबदास जी महाराज कहते हैं –
कुष्टि होवे साध बन्दगी कीजिए।
वैश्या के विश्वास चरण चित्त दीजिए।।
ऐसे अनजानों को जो कहते कुछ और करते कुछ हैं।
कबीर साहेब कहते हैं-
“कबीर, कहते हैं करते नहीं, मुख के बड़े लबार।
दोजख धक्के खाएगें, धर्मराय दरबार।।”
“कबीर, करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात।
कुकर ज्यों भौंकत फिरै, सुनी सुनाई बात।।”
“गरीब, कहन सुनन की करते बातां ।
कोई न देख्या अमृत खाता।।”
“कबीर सत्यनाम सुमरण बिन, मिटे न मन का दाग।
विकार मरे मत जानियो, ज्यों भूभल में आग।।