परमात्मा पाप नष्ट कर सकता है?

223
0

Content in this Article

Rate This post❤️

01 परमात्मा पाप नष्ट कर सकता है?

 – यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13



कबीर साहिब कहते हैं –
कबीर,जबही सत्यनाम हृदय धरयो,भयो पापको नास।
मानौं चिनगी अग्निकी, परी पुराने घास।।
02 पूर्ण परमात्मा आयु बढ़ा सकता है और कोई भी रोग को नष्ट कर सकता है। – ऋग्वेद

ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 161 मंत्र 2, 5, सुक्त 162 मंत्र 5, सुक्त 163 मंत्र 1 – 3

03 पूर्ण प्रभु कभी माँ से जन्म नहीं लेता का प्रमाण

यजुर्वेद अध्याय नं. 40 श्लोक नं. 8 में प्रत्यक्ष प्रमाण है। – पूर्ण प्रभु कभी माँ से जन्म नहीं लेता

यजुर्वेद अध्याय न. 40 श्लोक न. 8(संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य)ः-

स पय्र्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर ँ् शुद्धमपापविंद्यम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽ अर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। 8 ।।
सः-परि अगात-शुक्रम्-अकायम्-अव्रणम्-अस्नाविरम्-शुद्धम्-अपाप -अविंद्धम्-
कविर्-मनीषी-परिभूः-स्वयम्भूः-याथातथ्यतः-अर्थान्-व्यदधात्-शाश्वतीभ्यः-समाभ्यः
अनुवादः- (सः) वह (परि अगात) पूर्ण रूप से अवर्णनीय सर्वशक्तिवान पूर्ण ब्रह्म अविनाशी है। (अस्नाविरम्) बिना नाड़ी के शरीर युक्त है (शुक्रम) वीर्य से बने (अकायम्) पंचतत्व के शरीर रहित (अव्रणम्) छिद्र रहित व चार वर्ण, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्री, शुद्र से भिन्न (शुद्धम्) पवित्र (अपाप) निष्पाप (कविर) कविर्देव अर्थात् कबीर परमात्मा है, वह कबीर (मनीषी) महाविद्वान है जिसका ज्ञान (अविंद्धम्) अछेद है अर्थात् उनके ज्ञान को तर्क-वितर्क में कोई नहीं काट सकता वह (परिभूः) सर्व प्रथम प्रकट होने वाला प्रभु है जो सर्व प्रथम प्रकट होने वाला तथा सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाला प्रभु है (व्यदधात्) नाना प्रकार के ब्रह्मण्ड़ों को रचने वाला (स्वयम्भूः) स्वयं प्रकट होने वाला (याथा तथ्यतः) जैसा कि प्रमाणित है तथा (अर्थान्) सही अर्थों में अर्थात् वास्तव में (शाश्वतीभ्यः) जो उस प्रभु के विषय में लिखी अमर वाणी में प्रमाण है वह वैसा ही अविनाशी पूर्ण शक्ति युक्त अमृत वाणी से अर्थात् शब्द शक्ति से समृद्ध (समाभ्यः) पूर्ण ब्रह्म के समान कांति युक्त है अर्थात् पूर्ण परमात्मा के समान आभा वाला स्वयं कबीर ही पूर्ण ब्रह्म है।
भावार्थ:- कविर्देव का शरीर नाड़ियों से बना हुआ नहीं है। यह परमेश्वर अविनाशी है। इसका शरीर माता-पिता के संयोग से वीर्य से बना पाँच तत्व का नहीं है। यह परमात्मा कविर् है वही सर्वज्ञ है वह महाविद्वान है उसके ज्ञान को तर्क-वितर्क में कोई नहीं काट सकता अर्थात् उसका ज्ञान अछेद है। वह स्वयं प्रकट होता है, सर्व प्रथम प्रकट होने वाला है, माँ से जन्म नहीं लेता। सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार, पूर्ण शक्ति युक्त अमृत वाणी से अर्थात् शब्द शक्ति का धनी व कांति युक्त है। कुछ पाठक केवल एक शब्द ‘अकायम‘ को पढ़ कर निर्णय कर लेते हैं कि परमात्मा काया रहित है। परंतु इसके साथ.2 ‘स्वयंभू‘ शब्द भी लिखा है जिसका अर्थ है स्वयं प्रकट होने वाला। भावार्थ है कि परमात्मा सशरीर है उसका शरीर पांच तत्व से नहीं बना है। उस पूर्ण परमात्मा का बिना नाड़ी का तेजपंुज का शरीर बना है। इसलिए यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र एक में लिखा है कि ‘ अग्ने तनूः असि‘।

ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 4 मंत्र 3

शिशुम् न त्वा जेन्यम् वर्धयन्ती माता विभर्ति सचनस्यमाना
धनोः अधि प्रवता यासि हर्यन् जिगीषसे पशुरिव अवसृष्टः
अनुवाद:- हे पूर्ण परमात्मा जब आप (शिशुम्) बच्चे रूप को प्राप्त होते हो अर्थात् बच्चे रूप में प्रकट होते हो तो (त्वा) आपको (माता) माता (जेन्यम्) जन्म देय कर (विभर्ति) पालन पोषण करके (न वर्धयन्ती) बड़ा नहीं करती। अर्थात् पूर्ण परमात्मा का जन्म माता के गर्भ से नहीं होता (सचनस्यमाना) वास्तव में आप अपनी रचना (धनोः अधि) शब्द शक्ति के द्वारा करते हो तथा (हर्यन्) भक्तों के दुःख हरण हेतु (प्रवता) निम्न लोकों को मनुष्य की तरह आकर (यासि) प्राप्त करते हो। (पशुरिव) पशु की तरह कर्म बन्धन में बंधे प्राणी को काल से (जिगीषसे) जीतने की इच्छा से आकर (अव सृष्टः) सुरक्षित रचनात्मक विधि अर्थात् शास्त्रविधि अनुसार साधना द्वारा पूर्ण रूप से मुक्त कराते हो।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा काल के बन्धन में बंधे प्राणी को छुड़ाने के लिए आता है। बच्चे का रूप स्वयं अपनी शब्द शक्ति से धारण करता है। परमात्मा का जन्म व पालन-पोषण किसी माता द्वारा नहीं होता। इसी यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 8 में स्वयम्भूः परिभू अर्थात् स्वयं प्रकट होने वाला प्रथम प्रभु उसका (अकायम्) पाँच तत्व से बना शरीर नहीं है। इसलिए उस परमात्मा का शरीर (अस्नाविरम) नाड़ी रहित है। वह परमात्मा कविर मनिषी अर्थात् कवीर परमात्मा है जो सर्वज्ञ है।

ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 4 मंत्र 4

मूरा अमूर न वयं चिकित्वो महित्वमग्ने त्वमग् वित्से।
वश्ये व्रिचरति जिह्नयादत्रोरिह्यते युवतिं विश्पतिः सन्।।4।।
अनुवाद:- पूर्ण परमात्मा की महिमा के (मूरा) मूल अर्थात् आदि व (अमूर) अन्त को (वयम्) हम (न चिकत्वः) नहीं जानते। अर्थात् उस परमात्मा की लीला अपार है (अग्ने) हे परमेश्वर (महित्वम्) अपनी महिमा को (त्वम् अंग) स्वयं ही आंशिक रूप से (वित्से) ज्ञान कराता है। (वशये) अपनी शक्ति से अपनी महिमा का साक्षात आकार में आकर (चरति) विचरण करके (जिह्नयात्) अपनी जुबान से (व्रिः) अच्छी प्रकार वर्णन करता है। (विरपतिःस्रन्) सर्व सृष्टी का पति होते हुए भी (युवतिम्) नारी को (न) नहीं (रेरिह्यते) भोगता।
भावार्थ – वेदों को बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि मैं तथा अन्य देव पूर्ण परमात्मा की शक्ति के आदि तथा अंत को नहीं जानते। अर्थात् परमेश्वर की शक्ति अपार है। वही परमेश्वर स्वयं मनुष्य रूप धारण करके अपनी आंशिक महिमा अपनी अमृतवाणी से घूम-फिर कर अर्थात् रमता-राम रूप से उच्चारण करके वर्णन करता है। जब वह परमेश्वर मनुष्य रूप धार कर पृथ्वी पर आता है तब सर्व का पति होते हुए भी स्त्री भोग नहीं करता।

ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 4 मंत्र 5

कूचिज्जायते सनयासु नव्यो वने तस्थौ पलितो धूमकेतुः।
अस्नातापो वृषभो न प्रवेति सचेतसो यं प्रणयन्त मर्ताः।।5।।
अनुवाद:- जब पूर्ण परमात्मा मानव रूप में लीला करने के लिए पृथ्वी पर आता है उस समय जो भी पूर्व जन्म के संस्कारी प्राणी (कुचित्) कहीं भी (सनयासु) पूर्व संस्कारवश (जायते) उत्पन्न हुए हैं उनको तथा (नव्य) नए मनुष्य शरीर धारी प्राणियों में भक्ति संस्कार उत्पन्न करने के लिए (बने) बस्ती या बन में कहीं भी (तस्थौ) निवास करते हैं उनके पास (पलितः) वृद्ध रूप से सफेद दाढ़ी युक्त होकर (वृषभः) सर्व शक्तिमान सर्व श्रेष्ठ प्रभु (चमकेतुः) बादलों वाली बिजली जैसी तीव्रता से (प्रवेति) चल कर आता है। (न सचेतसः) अज्ञानियों को सत्यज्ञान से (अपः अस्नात) अमृतवाणी रूपी जल से स्नान करवाकर अर्थात् निर्मल करके (यम् मर्ताः) काल जाल में फंसे मनुष्यों को (प्रणयन्त) मोक्ष प्राप्त कराता है।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा जब मानव शरीर धारण कर पृथ्वी लोक पर आता है उस समय अन्य वृद्ध रूप धारण करके पूर्व जन्म के भक्ति युक्त भक्तों के पास तथा नए मनुष्यों को नए भक्ति संस्कार उत्पन्न करने के लिए वृद्ध रूप में सफेद दाढ़ी युक्त होकर जंगल तथा ग्राम में वसे भक्तों के पास विद्युत जैसी तीव्रता से जाता है अर्थात् जब चाहे जहाँ प्रकट हो जाता है। उन्हें सत्य भक्ति प्रदान करके मोक्ष प्राप्त कराता है।
उदाहरण:- (1) आदरणीय दादू साहेब जी को पूर्ण परमात्मा श्वेत दाढ़ी युक्त वृद्ध रूप में मिले थे। दादू जी ने उन्हंे बूढ़ा बाबा कहा था। फिर दूसरी बार जब उसी वृद्ध रूप में मिले तब अपना पूर्ण भेद दादू जी को बताया था।
(2) आदरणीय धर्मदास जी को मथूरा में जिन्दा बाबा अर्थात् प्रौढ़ आयु के शरीर में मिले थे। धर्मदास जी की आत्मा को सतलोक लेकर गए। अपना पूर्ण भेद बताकर पुनर् पृथ्वी पर छोड़ा तब सन्त धर्मदास जी ने बताया कि यह काशी में जुलाहे की भूमिका करने स्वयं पूर्ण परमात्मा कबीर ही आए हैं।
(3) आदरणीय नानक साहेब जी को बेई नदी पर जिन्दा बाबा के रूप में मिले। उनको भी सच्चखण्ड अर्थात् सतलोक दिखाया तथा कहा मैं काशी में जुलाहे की भूमिका कर रहा हूँ। तीन दिन पश्चात् श्री नानक जी की आत्मा सतलोक से लौटी तथा बताया कि ‘‘सतपुरूष ही पूर्ण परमात्मा है। वह धाणक रूप में कबीर ही पृथ्वी पर भी आया हुआ है।
(4) श्री मलूक दास जी को मिले उन्हें भी सतलोक में देखकर बताया कि जो वृद्धावस्था में सन्त कबीर जी हैं यह ही अन्य रूप में पूर्ण परमात्मा आया हुआ है।
(5) घीसा दास जी को वृद्ध के रूप में मिले।
(6) सन्त गरीबदास जी को वृद्ध रूप में मिले यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 4 मन्त्र 5 में है।

ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 4 मंत्र 6

तनूत्यजा इव तस्करा वनर्गू रशनाभिः दशभिः अभ्यधीताम्
इयन्ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्षवा रथम् न शुचयरिः अंगैः।
अनुवाद:- (तस्करा) काल भगवान को धोखा देकर एक साधारण व्यक्ति की भूमिका चोरों की तरह करके रहने वाला पूर्ण प्रभु (रशनाभिः) अपनी अमृतवाणी से (अभ्यधीताम्) प्रभु भक्ति के अत्यधिक प्यासे भक्तों को (दशभिः) दशधा भक्ति का ज्ञान देता है। उस तत्वज्ञान के आधार से (तनूत्यजा) शरीर का त्याग (इव) इस प्रकार कर जाते हैं जैसे (वनर्गू) जंगल में विष्ठा का त्याग अनिवार्य जानकर कर देते हैं। इसी प्रकार तत्वज्ञान से मृत्यु समय शरीर त्याग का भय नहीं बनता। क्योंकि नौधा भक्ति तो ब्रह्म-काल तक की साधना है जो श्रीरामचन्द्र जी ने भक्तमति शबरी को प्रदान की थी। दशधा भक्ति पूर्ण परमात्म कविर्देव की है जो स्वयं उसी प्रभु ने प्रदान की है जिसे पाँचवां वेद भी कहा जाता है। (अग्ने) परमेश्वर की (मनीषा) तत्वज्ञान युक्त सत्य दशधा भक्ति (इयन्ते) इतनी अधिक प्रभावशाली (नव्यसी) नूतन है कि भक्त जन (रथम्) शरीर रूपी रथ को (युक्षवा) छोड़कर जब चलता है तब (अंगैः) किसी भी शरीर के भाग में (न शुचयरि) किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा इस काल के लोक से अपने भक्तों को निकालने के लिए अपनी महिमा को छुपाकर एक अत्यधिक गरीब व्यक्ति की तरह भूमिका करता है, {इसीलिए श्री नानक साहेब जी ने पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर करतार) को दोनों स्थानों पर (सत्यलोक में तथा पृथ्वी पर काशी में) देखकर कहा था कि यह ठगवाड़ा ठगी देश, फाई सूरत मलुकि वेश, खरा सियाना बहुता भार, धाणक रूप रहा करतार।} अपने अनुयाईयों को काल-ब्रह्म की नौधा भक्ति से भिन्न दशधा नूतन भक्ति प्रदान करता है। जिस तत्वज्ञान से प्राप्त भक्ति की भजन कमाई के आधार से साधक इस पाँच तत्व वाले शरीर को ऐसे त्याग जाता है जैसे समय पर मल त्याग (टट्टी त्याग करना) करना अति अनिवार्य होता है। जिस तत्वज्ञान के आधार से व भक्ति की कमाई के कारण शरीर त्यागते समय किसी भी अंग में कष्ट नहीं होता।

आदरणीय गरीबदास जी महाराज ने कहा है –

देह गिरी तो क्या भया, झूठी सब पटिट। पक्षी उड़ा आकाश में, चलते कर गया बीट।।
मूल जीव की तुलना में पाँच तत्व का शरीर तो पक्षी के शरीर की तुलना में जैसे विष्ठा होता है ऐसा जानना चाहिए। भक्ति पूरी होने के पश्चात् इस पंच भौतिक शरीर का त्याग अनिवार्य जानना चाहिए।

ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 4 मंत्र 7

ब्रह्म च ते जातवेदः नमः च इयम् च गीः सदमित् वर्धनी
भूत् रक्षणः अग्ने तनयानि तोका रक्षेतः न तन्वः अप्रयुच्छन्।
अनुवाद:- (जातवेदः) हे जातदेव अर्थात् तत्वज्ञान सहित प्रकट पूर्ण प्रभु (ते) आपकी (च) तथा (ब्रह्म) ब्रह्म काल की (इयम्) इस प्रकार जो पूर्वोक्त मंत्र 6 में वर्णित है जैसा नौधा भक्ति में ¬ नाम का जाप मुख्य होता है तथा दशधा भक्ति में तत् जो सांकेतिक नाम का जाप प्रमुख होता है, इन दोनों मंत्रों के योग से सत्यनाम बनता है। इसे (नमः) विनम्र भाव से की पूजा (च) तथा (गीः) अर्थात् सुबह, दोपहर तथा शाम के समय स्तुति वाणी द्वारा करने से (सदमित्) शास्त्रविधि अनुसार साधना करने वाले सत्यनाम साधकों को हर प्रकार से (रक्षणः) संरक्षण (च) तथा (वर्धनी) चहूँमुखी धन-धान्य की वृद्धि (भूत्) होती है। (अग्ने) पूर्ण परमात्मा (तन्वः) सशरीर आकर (अप्रयुच्छन्) अधिक उमंग के साथ भाग्य से अधिक सुख प्रदान करके (तोका) बच्चों की ही (न) नहीं अपितु (तनयानि) कई पीढ़ी तक पौत्रों-परपौत्रों अर्थात् वंशजों की (रक्षोतः) रक्षा करता है।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा की दशधा भक्ति तथा ब्रह्म की नौधा भक्ति से बने ¬ व तत् मंत्र जो सत्यनाम कहलाता है, उस के जाप करने वाले सत्यभक्ति साधक को पूर्ण परमात्मा शरण में लेकर उसकी तथा कई पीढ़ियों तक की रक्षा व भक्ति तथा धन-धान्य की वृद्धि करता है। जो भाग्य में न हो उस सुख को भी प्रदान करता है।

ऋग्वेद मण्डल 1 सुक्त 1 मंत्र 5

अग्निः होता कविः क्रतुः सत्यः चित्रश्रवस्तम् देवः देवेभिः आगमत्।।5।।
अनुवाद: (होता) साधकों के लिए पूजा करने योग्य अविनाशी (अग्निः) प्रभु (क्रतुः) सर्व सृष्टी रचनहार (कविर्) कविर/कविर्देव है जो (सत्यः चित्र) अविनाशी विचित्र तेजोमय शरीर युक्त आकार में (श्रवस्तम्) सुना जाता है। वह (देवः) परमेश्वर (देवेभिः) सत्य भक्ति करने वाले सर्व विकार रहित देव स्वरूप साधकों द्वारा (आगमत्) प्राप्त होता है।
भावार्थ:- सर्व सृष्टी रचनहार कुल का मालिक कविर्देव अर्थात् कबीर परमात्मा है। जो तेजोमय शरीर युक्त है। जो साधकों के लिए पूजा करने योग्य है। जिसकी प्राप्ति तत्वदर्शी संत के द्वारा बताए वास्तविक भक्ति मार्ग से देवस्वरूप(विकार रहित) भक्त को होती है।

ऋग्वेद मण्डल 1 सुक्त 1 मंत्र 6

यत् अंग दाशुषे त्वम् अग्ने भद्रम् करिष्यसि तवेत् तत् सत्यम् अंगिरः।।6।।
अनुवाद:- (अग्ने) परमेश्वर (त्वम्) आपके (यत्) जो (अंग) शरीर के अवयव हैं, उनके दर्शन (दाशुषे) सर्वस दान करने वाले दास भाव वाले भक्तों के लिए ही सुलभ हैं जिसके दर्शन (भद्रम्) भले पुरुष ही (करिष्यसि) करते हैं (तवेत्) आप का ही (तत्) वह (सत्यम्) अविनाशी अर्थात् सदा रहने वाला (अंगिरः) तेजोमय शरीर है।
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा का अविनाशी तेजोमय शरीर है। उसके दर्शन समर्पण करके तत्वदर्शी सन्त द्वारा साधना करने वाले साधक को ही होते हैं।

ऋग्वेद मण्डल 1 सुक्त 1 मंत्र 7

उप त्वा अग्ने दिवे दिवे दोषावस्तः धिया वयम् नमः भरन्त् एमसि ।।7।।
अनुवाद: (उप अग्ने) परमेश्वर अन्य रूप धारण करके उप प्रभु अर्थात् गुरुदेव रूप में परमात्मा की उपमा युक्त (त्वा) स्वयं (दिवे-दिवे) दिन – दिन अर्थात् समय-समय पर नाना प्रकार के (दोषावस्तः) कम तेजोमय भुजा आदि छोटे अवयव युक्त शरीर में यहाँ आकर कुछ समय वास करते हो। उस समय (वयम्) हम (धिया) अपनी बुद्धि अर्थात् सोच समझ अनुसार (नमो) नमस्कार, स्तुति, साधना से (भरन्त् एमसि) प्राय भक्ति का भार अधिक भरते हैं अर्थात् फिर भी हम अपनी सूझ-बूझ से ही भक्ति करके पूर्ति प्राय करते हैं।
भावार्थ:- परमेश्वर कविर्देव अन्य हल्के तेजपुंज का शरीर धारण करके उपअग्ने अर्थात् छोटे प्रभु (गुरुदेव) रूप में कुछ समय यहाँ मनुष्य की तरह वसते हैं। उस समय हम अपनी बुद्धि के अनुसार आप को समझकर आपके बताए मार्ग का अनुसरण करके अपनी भक्ति साधना करके भक्ति धन की पूर्ति करते हैं। जो तत्वज्ञान स्वयं पूर्ण परमात्मा, अन्य उप-प्रभु रूप में प्रकट होकर (कविर् गिरः) कविर्वाणी अर्थात् कबीर वाणी कविताओं व दोहों तथा लोकोक्तियों द्वारा कवित्व से उच्चारण करते हैं उस तत्वज्ञान को बाद में सन्त जन ठीक से नहीं समझ पाते। उसी पूर्व उच्चारित वाणी को यथार्थ रूप से समझाने के लिए (उपअग्ने) उप प्रभु अर्थात् अपने दास को सतगुरू रूप में प्रकट करता है। सन्त गरीबदास जी छुड़ानी वाले ने ‘‘असुर निकन्दन रमैणी’’ में कहा है कि साहेब तख्त कबीर ख्वासा दिल्ली मण्डल लीजै वासा, सतगुरू दिल्ली मण्डल आयसी सुती धरती सूम जगायसी। जिसका भावार्थ है कि कबीर परमेश्वर के तख्त का निकटत्तम नौकर दिल्ली मण्डल भारतवर्ष में दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में जन्म लेगा तथा वह प्रभु का नौकर दिल्ली व उसके आस-पास के व्यक्तियों को भक्तिमार्ग पर लगाएगा। जो दान धर्म त्याग कर कृपण (कंजूस) हो गए हैं। वह प्रभु का दास पूर्व उच्चारित वाणी का यथार्थ ज्ञान कराएगा। यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 5 में है। इस मन्त्र में उस प्रभु दास को उपवक्ता कहा है।

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 2 मंत्र 1

वायो आयहि दर्शत् इमे सोमाः अरंकृताः। तेषाम् पाहि श्रुधी हवम्।।1।।
अनुवाद:- (वायो) सर्व प्राणियों के प्राणाधार समर्थ प्रभु (सोमाः अरंकृताः) अपनी अमर माया से रचे अपने शरीर को सर्व अंगों से अलंकृत किए हुए अमर पुरुष आप (आयहि) यहाँ आईए, हमें प्राप्त होईए(दर्शत इमे) आप साक्षात देखने योग्य हैं। (तेषाम्) आप की महिमा की (हवम्) भक्ति के विषय में (श्रुधी) केवल कहते सुनते हैं वास्तविक ज्ञान (पाहि) आप ही सुरक्षा के साथ प्रदान किजिए।
भावार्थ – हे अमर शरीर से सुशोभित अमर पुरुष अर्थात् पूर्ण परमात्मा आप साक्षात् दर्शन करने योग्य हैं। हम तो आपकी भक्ति व महिमा को केवल लोकवेद के आधार पर कहते-सुनते हैं। जैसी महिमा उपरोक्त ऋग्वेद मण्डल 1 सुक्त 2 मन्त्र 1 में कही है उसी प्रकार आप अन्य तेजपुंज का शरीर धारण करके यहाँ आईए तथा वास्तविक ज्ञान आप स्वयं ही आकर कराईये।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 93 मंत्र 1 –

साकमुक्षः मर्जयन्तः स्वसारः दश धीरस्य धीतीयः धनुत्रीः हरिः
पय्र्य द्रवत् जाः सूर्यस्य द्रोणम् न नक्षे अत्यः न वाजी।
अनुवाद:- (धीरस्य) तत्वदर्शी की भूमिका हेतु तत्व दृष्टा के रूप में अवतरित साकार प्रभु (स्वसारः) अपने तत्वज्ञान के द्वारा (दश) दशधा भक्ति की (साकमुक्षः) उसी समय वर्षा करके बौछार बिखेरता है तथा (मर्जयन्तः) काल रूपी शिव अर्थात् ब्रह्म के (धनुत्रीः) तीन ताप रूपी त्रिशूल का (हरिः) हरण करने वाला वही प्रभु है। उस तत्वज्ञान को (धीतीयः) पीने अर्थात् ग्रहण करने वाला (पय्र्य द्रवत्) सर्वत्र समर्थ प्रभु की शक्ति का प्रभाव देखता है, उसे लगता है (नक्षे) तारा मण्डल में चांद की रोशनी रूपी (जाः) तीन लोक के उपज्ञान विचार हैं वे ऐसे है जैसे (सूर्यस्य) सूर्य के उदय होने पर (द्रोणम्) किरण कि रोशनी के समक्ष (न) नहीं के समान होते हैं। काल अर्थात् ब्रह्म ऐसे ही पूर्ण परमात्मा के सामने (अत्यः) अधिक (न वाजी) शक्ति शाली नहीं है।
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा स्वयं ही तत्वदृष्टा रूप से मनुष्य के साकार रूप में प्रकट होता है। उस समय काल रूपी ब्रह्म द्वारा दिए तीन लोक के लोकवेद वाले ज्ञान को समाप्त करता है तथा अपना तत्वज्ञान भी उसी समय प्रचार करता है। जिस किसी श्रद्धालु ने पूर्ण परमात्मा का ज्ञान ग्रहण कर लिया, उसे तीन लोक का ज्ञान तथा प्रभु ऐसे लगने लगते हैं जैसे रात्री में चन्द्र की महिमा तारामण्डल में होती है, परन्तु सूर्य उदय होने पर विद्यमान होते हुए भी नजर नहीं आते अर्थात् असार हो जाते हैं।

कबीर परमेश्वर ने अपनी महिमा अपनी अमृतवाणी में कही है:-

कबीर, तारामण्डल बैठ कर, चांद बड़ाई खाय।
उदय हुआ जब सूर्य का, स्यौं तारों छिप जाए।।
यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में है कि बहुत बड़े जलाश्य की प्राप्ति के पश्चात् जैसे आस्था छोटे जलाश्य में रह जाती है उसी प्रकार तत्वज्ञान के आधार से पूर्ण परमात्मा की महिमा से परिचित होने के पश्चात् अन्य प्रभुओं (परब्रह्म, ब्रह्म, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) में आस्था रह जाती है तथा अन्य सन्तों, ऋषियों द्वारा दिया ब्रह्म तक के ज्ञान में भी वही आस्था रह जाती है अर्थात् वह ज्ञान तथा अन्य भगवान पूर्ण नहीं है। उनसे पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। जैसे छोटा जलाश्य तो एक वर्ष वर्षा न होने से जल रहित हो जाता है तथा बड़ा जलाश्य दस वर्ष भी वर्षा नहीं होती तो भी जल रहित नहीं होता। वह छोटा जलाश्य बुरा नहीं लगता परन्तु उसकी क्षमता का ज्ञान हो जाता है तथा बड़े जलाश्य की क्षमता उस से कहीं अधिक होती है। इसलिए प्रत्येक प्राणी उस बड़े जलाश्य की ही शरण ग्रहण कर लेता है। ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा तथा अन्य प्रभुओं की क्षमता से परिचित व्यक्ति उस पूर्ण परमात्मा की ही शरण ग्रहण करता है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 93 मंत्र 2

सम् मातृभिः न शिशुः वावशानः वृषा दधन्वे पुरुवरः अरिः मर्यः
न योषाम् अभि निष्कृतम् यन्त् सम् गच्छते कलश उòियाभिः।
अनुवाद:- उपरोक्त परमात्मा ही (सम्) उसी सम रूप में (वृषा) उसी महान् शक्ति युक्त (शिशुः) बच्चे का रूप (दधन्वे) धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होता है वह प्रभु (वावशानः) दोनों स्थानों पर निवास करता है अर्थात् यहाँ पृथ्वी लोक पर भी तथा तीसरे पूर्ण मुक्ति धाम अर्थात् सत्यलोक में भी रहता है, उस समय (न मातृभिः) माता से जन्म नहीं लेता (पुरुवरः) सर्व श्रेष्ठ परमात्मा जब (मर्यः) मनुष्य रूप (अरिः) प्राप्त करके चल कर पाप कर्मों का (अरिः) शत्रु बन कर आता है उस समय (न योषाम् अभि) विषय वासना के लिए स्त्री ग्रहण नहीं करता। वही (उòियाभिः) सर्व शक्तिमान प्रभु (निष्कृतम्) निर्दोष (यन्त्) जहाँ से आता है (सम्) उसी के समान ज्यों का त्यों यथावत्(कलश) कलश रूपी शरीर सहित अर्थात् सशरीर (गच्छते) चला जाता है।
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा सत्यलोक तथा पृथ्वी लोक में दोनों स्थानों पर दो रूप बना कर रहता है। बच्चे रूप में आता है, वह किसी माता से उत्पन्न नहीं होता, जब लीला करता हुआ जवान होता है तब विषय भोग के लिए स्त्री ग्रहण नहीं करता। सशरीर आता है तथा शरीर से कोई विकार नहीं करता वह निर्दोष प्रभु अपनी लीला करके ज्यों का त्यों सशरीर जहाँ से आता है वहीं चला जाता है।
मात-पिता मेरे घर नहीं, ना मेरे घर दासी।
तारण-तरण अभय पद दाता, हूँ कबीर अविनाशी।।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 93 मंत्र 5

नुनः रयिम् उपमास्व नृवन्तम् पुनानः वाताप्यम् विश्वश्चन्द्रम्
प्र वन्दितुः ईन्दो तारि आयुः प्रातः मक्षु धियावसुः जगम्यात्।
अनुवाद:- (नुनः) निसंदेह ( रयिम्) पूर्ण धनी परमेश्वर (नृवन्तम्) मनुष्य सदृश रूप धारण करके (पुनानः) फिर एक जीवन भर (उपमास्व) पूर्व की तरह उसी उपमा युक्त हों अर्थात् जैसे ऊपर के मंत्र में वर्णन है ऐसे एक बार फिर हमारे लिए पृथ्वी पर आऐं। (विश्वश्चन्द्रम्) हे सर्व श्रेष्ठ आप (वाताप्यम्) प्राप्त करने योग्य (तारि) उज्जवल (ईन्दो) चन्द्रमा तुल्य शीतल सुखदायक परमात्मा आप (प्र वन्दितुः) शास्त्र अनुकूल सत्य भक्ति करने वाले उपासक को (मक्षु) भक्ति की कमाई रूपी धन का ढेर लगवाऐं अर्थात् अत्यधिक नाम कमाई का संचन करवाऐं। (आयुः प्रातः) आयु रूपी सुबह अर्थात् मनुष्य जीवन काल में ही (जगम्यात्) सतलोक से आकर जगत् में निवाश करें तथा (धियावसुः) हमारे को तत्वज्ञान से सत्य भक्ति करवाके सत्यलोक में ले जाकर स्थाई निवास प्रदान करें।
भावार्थ:- हे पूर्ण परमात्मा ! आप सर्व श्रेष्ठ हैं, आप की चाह सर्व प्राणियों को है। जैसे आप की उपरोक्त मंत्र में महिमा वर्णित है, उसी प्रकार एक बार फिर वास्तविक शक्ति युक्त जो आपका मनुष्य सदृश शरीर है, उसी में फिर मेरे मानव जीवन काल में आकर सत्यज्ञान व सत्य भक्ति करवाके सत्यलोक में स्थाई स्थान प्रदान करने की कृप्या करें।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मंत्र 2

द्विता व्यूण्र्वन् अमृतस्य धाम स्वर्विदे भूवनानि प्रथन्त धियः पिन्वानाः स्वसरे न गाव ऋतायन्तीः अभि वावश्र इन्दुम्।
अनुवाद:- जो सर्व सुखदायक पूर्ण परमात्मा इस पृथ्वी लोक पर सशरीर आकर कवि की भूमिका करता है वह (द्विता) दोनों स्थानों सतलोक व पृथ्वी लोक पर लीला करने वाला है। उस (अमृतस्य) अमर पुरुष का (व्यूण्र्वन्) विशाल (धाम) सतलोक स्थान (स्वर्विदे) महासुखदाई जानों, वही सतपुरुष पूर्ण ब्रह्म (भूवनानि) सर्व लोक लोकान्तर में भी इसी तरह सशरीर (स्वसरे) अपने मानव सदृश स्वरूप में (प्रथन्त) प्रकट होकर (धियः) सत्य ज्ञान प्रदान करके (पिन्वानाः) आता जाता रहता है। उस परमात्मा की पहुँच से कोई भी स्थान खाली नहीं है। (गाव) वह कामधेनु की तरह सर्व सुखमय पदार्थ प्रदान करने वाला (ऋतायन्तीः अभि) सत्यलोक से ही (न) नहीं इससे भी ऊपर के लोकों से आगन्तुक, (इन्दुम्) चन्द्रमा तुल्य शीतल सुखदाई प्रभु का (वावश्र) भिन्न-भिन्न स्थानों पर अन्य मानव सदृश रूप में भी वास है।
भावार्थ – कामधेनु की तरह सर्व सुखदायक पदार्थ प्रदान करने वाला लोक लोकान्तरों में नाना रूप बनाकर कवि उपमा से प्रसिद्ध होकर अभिनय करने वाला सत्य भक्ति प्रदान करने वाला परमात्मा सर्व ब्रह्मण्डों में विद्यमान रहता है तथा आता-जाता भी रहता है। उस परमात्मा का विशाल स्थान अर्थात् सत्यलोक है। वह पूर्ण परमात्मा ऊपर व नीचे, पृथ्वी व सतलोक व उससे भी ऊपर के स्थानों में भी वास करता है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मंत्र 3

परि यत् कविर् काव्या भरते शुरो न रथो भूवनानि विश्वा देवेषु
यशः मर्ताय भूषन् दक्षाय रायः – पुरुभूषु नव्यः।
अनुवाद:- (यत्) जो परमात्मा (काव्या परि भरते) कवियों की भूमिका करके सत्य भक्ति भाव को परिपूर्ण रूप से प्रदान करता है वह (कविर्) कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है। उसके समान (शुरो) कोई भी शूरवीर (न) नहीं है (विश्वा भूवनानि) सर्व ब्रह्मण्डों के (देवेषु) प्रभुओं में (रथः) उसकी शक्ति क्रिया अर्थात् समर्थता का (यशः) यश है। (मर्ताय भूषन्) मनुष्य रूप से सुशोभित होकर (दक्षाय) सर्वज्ञता व (नव्यः) सदा नवीन अर्थात् युवा रूप में समर्थ प्रभु (पुरुभूषु) पुरुषत्व का स्वामी (रायः) पूर्ण धनी परमेश्वर है।
भावार्थ – जो पूर्वोक्त परमात्मा कवियों की भूमिका करके अपना तत्वज्ञान प्रदान करता है वह कविर्देव है अर्थात् वह कबीर प्रभु है जिसकी प्रभुता सर्व ब्रह्मण्डों के प्रभुओं पर है। वह सदा एक रस रहता है अर्थात् मरता व जन्मता नहीं है, वह मनुष्य सदृश शरीर से सुशोभित है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 1

कनिक्रन्ति हरिः सृज्यमानः सीदन् वनस्य जठरे पुनानः नृभिः
यतः कृणुते निर्णिजम् गाः अतः मती जनयत स्वधाभिः।
अनुवाद:- पूर्ण परमात्मा (कनिक्रन्ति) शब्द स्वरूप अर्थात् अविनाशी मनुष्य आकार में साक्षात प्रकट होता है। (सीदन्) दुःख को (हरिः) हरण करने वाला प्रभु (सृज्यमानः) स्वयं साक्षात्कार को प्राप्त होता है अर्थात् सशरीर प्रकट होता है। (वनस्य) संसार रूपी जंगल के (जठर) पेट रूपी पृथ्वी पर मनुष्य रूप स्थूल आकार में (पुनानः) पवित्र प्रभु विराजमान होता है। (यतः) जो भक्ति का प्रयत्न करने वाले (नृभिः) मनुष्यों के द्वारा (निर्णिजम्) साक्षात्कार (कृणुते) किया जाता है अर्थात् उन प्रभु भक्ति के प्रयत्न करने वालों को प्रभु स्वयं आकर मिलता है। (अतः) इस प्रकार (स्वधाभिः) अपनी शब्द शक्ति से मंत्र प्रदान करके (मतीजनयत्) सद्बुद्धि प्रदान करता है जिस आधार से भक्त जन (गाः) उस प्रभु की महिमा का गुणगान करते हैं।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा सशरीर संसार में पृथ्वी पर आकर अपनी सत्यभक्ति को प्रभु प्राप्ति की तड़फ में लगे भक्त वृद को स्वयं ही सत्यभक्ति प्रदान करता है जिससे सद्बुद्धि को प्राप्त होकर भक्त प्रभु की महिमा का गुणगान करते हैं।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 2

हरिः सृजानः पथ्याम् ऋतस्य इयर्ति वाचम् अरितेव नावम्
देव देवानाम् गुह्यानि नाम अविष्कृणोति बर्हिषि प्रवाचे।
अनुवाद:- (हरिः) पूर्वोक्त सर्व संकट विनाशक प्रभु (सृजानः) मनुष्य रूप धारण करके साक्षात प्रकट होता है। (वाचम्) अमृतवाणी के प्रवचन करके (ऋतस्य) सत्यनाम की (पथ्याम्) मर्यादा से शास्त्रनुकूल साधना करने की (इयर्ति) प्रेरणा करता है। (देवानाम्) देवताओं का भी (देव) परमेश्वर अर्थात् कुल का मालिक (गुह्यानि) गुप्त (नाम) भक्ति मंत्र अर्थात् नाम (अविष्कृणोति) आविष्कार की तरह प्रकट करता है {सोहं शब्द हम जग में लाए, सार शब्द हम गुप्त छुपाऐ-संत गरीबदास जी} जिससे (अतिरेव) काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार तथा अज्ञान रूपी छः शत्रुओं से (प्रवाचे) तत्वज्ञान के प्रवचनों द्वारा संसार सागर से ऐसे बचा लेता है जैसे जल पर (नावम्) नौका को नाविक सही तरीके से चलाता हुआ (बर्हिषि) भंवर चक्र से बचाकर बाहर कर देता है।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा मनुष्य सदृश शरीर में साक्षात प्रकट होकर अपना तत्वज्ञान अपनी अमृतवाणी द्वारा बोलता है तथा गुप्त नाम जाप जो पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का होता है आविष्कार सा करके उसे प्रकट करते हैं। जैसे आदरणीय गरीबदास साहेब जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है कि कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने बताया कि सोहं शब्द किसी भी शास्त्र मंे नहीं है, यह विकार व तीन ताप विनाश करने वाला मंत्र परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) इस संसार में लेकर आए हैं। अन्य को ज्ञान नहीं है, फिर भी सार शब्द गुप्त ही रखा है। जो साधक पथ पर अर्थात् शास्त्रविधि अनुसार मर्यादा से चल कर उस समय सतगुरु रूप में आए प्रभु के वचनों अनुसार साधना करता है, उसके सर्व विकार व तीन ताप के कष्टों से नाविक की तरह संसार सागर से पार कर देता है। आविष्कार का भावार्थ है कि जैसे कोई पदार्थ यही कहीं से खोज कर सर्व के समक्ष उपस्थित करना जिस का अन्य को ज्ञान न हो। इसी प्रकार ये तीनों मन्त्र ओम्-तत्-सत् सद्ग्रन्थों में विद्यमान थे परन्तु अन्य किसी को ज्ञान नहीं था। जो अब मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा आविष्कृत किए गए हैं।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 3

अपमिव अदूर्मयः ततुराणाः प्र मनिषा ईरते सोमम् अच्छ
नमस्यन्ति रूप यन्ति स चा च विशन्ति उशतीः उशन्तम्।
अनुवाद:- (सोमम्) पूर्ण परमात्मा (रूप अच्छ यन्ति) साकार में सुन्दर रूप धारण करता है। (मनिषा) भक्तात्मा को (प्र ईरते) प्रभु भक्ति के लिए प्रेरित करके भक्ति में ऐसे संलग्न करता है (अपमिव) जैसे जल की लहरें जल से अपना आत्म भाव रखती हैं (च) और (अदूर्मयः) जैसे लहरें लगातार चलती रहती हैं ऐसे प्रभु भक्ति करने वाली आत्मा (ततुराणाः) उस सतलोक स्थान को (नमस्यन्ति) पूजा करके प्राप्त करती है (च) और (उशन्तम्) उस सुन्दर पूर्ण परमात्मा को (सम्) अव्यवस्थित न होकर (उशतीः) भक्ति से शोभा युक्त हुई भक्त आत्मा (अविशन्ति) प्राप्त होती है।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा सशरीर आकर सत्य साधना प्रदान करता है, जिस कारण से सत्यभक्ति करने वाली भक्त आत्मा पूर्ण परमात्मा को साकार में मर्यादा से भक्ति निमित कारण से प्राप्त करती है। जैसे समुद्र में लहरें निरन्तर उठती रहती हैं ऐसे प्रभु भक्ति की तड़फ में हृदय में हिलोर उठती रहें तथा स्मरण मन्त्र की याद सदा बनी रहे। इस प्रकार की गई भक्ति से साधना के आधार से भक्ति के धनी होकर परमात्मा प्राप्त होता है। इसलिए इस वेद मन्त्र में कहा है कि ऐसी लगन वाली भक्ति वह परमात्मा स्वयं उपवक्ता अर्थात् सद्गुरू रूप में प्रकट होकर प्रदान करता है। जैसे कबीर परमात्मा ने सुक्ष्म वेद अर्थात् अपनी अमृत वाणी में कहा है कि:–
स्मरण की सुध यों करों, जैसे पानी मीन। प्राण तजै पल बिछुड़े, सत् कबीर कह दीन्ह।।
स्मरण से मन लाईए जैसे नाद कुरंग। कह कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजै तेही संग।।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 5

इष्यन् वाचम् उपवक्तेव होतुः पुनान इन्दः विष्या
मनीषाम् इन्द्रः च यत् क्षयथः सौभगाय सुवीर्यस्य पतयः स्याम्।
अनुवाद – (इन्दः) मन भावन चन्द्रमा तुल्य शीतल सुखदाई प्रभु (पुनान्) फिर से आकर (उपवक्तेव) उपवक्ता रूप में अर्थात् स्वयं ही मनुष्य रूप में अपनी महिमा का वर्णन उपवक्ता रूप से (वाचम् इष्यन्) अमृतवाणी उच्चारण करते हुए (होतुः) उपदेश करें (च) तथा (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् प्रभु (मनीषाम्) सदबुद्धि को (विष्या) प्रदान कीजिए। (यत्) जो (क्षयथः) क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष से भिन्न अद्वितीय प्रभु सत्यलोक स्थान में (सौभगाय) सौभाग्य से (सुवीर्यस्य) सत्य भक्ति की शक्ति के (पतयः) मालिक (स्याम्) हों।
भावार्थ – हे सर्व सुखदाई प्रभु! उपरोक्त मंत्रों में वर्णित महिमा की तरह एक बार फिर मनुष्य की तरह आकर हमें अपनी अमृतवाणी को अपने मुख से उपवक्ता रूप में उच्चारण करके सदबुद्धि प्रदान करें, जिससे हम सत्यभक्ति करके भक्ति कमाई के धनी बनकर आप के सत्यलोक स्थान को प्राप्त हों। उपवक्ता का भावार्थ है कि जैसे परमात्मा प्रत्येक युग में प्रारम्भ में प्रकट होकर अपना तत्वज्ञान प्रकट करके चले जाते हैं। उस अमृतवाणी को फिर से आकर उपवक्ता रूप में उच्चारण करके यथार्थ रूप से समझाता है। यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 1 सुक्त 1 मन्त्र 7 में प्रभु को उप अग्ने कहा है। जिस का अर्थ है उप परमेश्वर(छोटा प्रभु)।

ऋग्वेद मण्डल न. 1 अध्याय न. 1 सूक्त न. 11 श्लोक न. 4

पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत।
इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः ।।4।।
पुराम्-भिन्दुः-युवा-कविर्-अमित-औजा-अजायत-इन्द्रः-विश्वस्य-कर्मणः- धर्ता-वज्री-पुरूष्टुतः।
अनुवाद:- (युवा) पूर्ण समर्थ {जैसे बच्चा तथा वृद्ध सर्व कार्य करने में समर्थ नहीं होते। जवान व्यक्ति सर्व कार्य करने की क्षमता रखता है, ऐसे ही परब्रह्म-ब्रह्म व त्रिलोकिय ब्रह्मा-विष्णु-शिव तथा अन्य देवी- देवताओं को बच्चे तथा वृद्ध समझो इसलिए कबीर परमेश्वर को युवा की उपमा वेद में दी है} परमेश्वर (कविर्) कबीर (अमित औजा) विशाल शक्ति युक्त अर्थात् सर्व शक्तिमान (अजायत) तेजपुंज का शरीर मायावयी बनाकर (धर्ता) प्रकट होकर अर्थात् अवतार धारकर (वज्री) अपने सत्यशब्द व सत्यनाम रूपी शस्त्र से (पुराम्) काल-ब्रह्म के बन्धन रूपी किले को (भिन्दुः) तोड़ने वाला, टुकड़े-टुकड़े करने वाला (इन्द्रः) सर्व सुखदायक परमेश्वर (विश्वस्य) सर्व जगत के सर्व प्राणियों को (कर्मणः) मनसा वाचा कर्मणा अर्थात् पूर्ण निष्ठा के साथ अनन्य मन से धार्मिक कर्मो द्वारा सत्य भक्ति से (पुरूष्टुतः) स्तुति उपासना करने योग्य है।
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा को वेद में युवा की उपाधी दी है। क्योंकि जवान व्यक्ति मानव सत्र के सर्व कार्य करने में सक्षम होता है। वृद्ध व बच्चे सक्षम नहीं होते। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) के अतिरिक्त अन्य प्रभुओं (परब्रह्म-ब्रह्म व ब्रह्मा, विष्णु व शिव आदि) को बच्चे जानों। वह पूर्ण परमात्मा हल्के तेज का शरीर धारण करके मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होता है। काल के अज्ञान रूप किले को तत्वज्ञान रूपी शस्त्र से तोड़कर भक्त वृन्द को सत्य साधना करा के अनादि मोक्ष प्राप्त कराता है। वह परमात्मा सर्व के लिए पुज्य है।

विशेषः- उपरोक्त वेद मन्त्रों ने सिद्ध कर दिया कि पूर्ण परमात्मा मनुष्य सदृश शरीर युक्त साकार हैं। उस का शरीर तेजोमय है। वह पूर्ण परमात्मा सतलोक आदि ऊपर के लोकों में तथा नीचे पृथ्वी वाले लोकों में दोनों स्थानों पर विद्यमान रहता है। उसका नाम कविर्देव (कबीर प्रभु) है। वह यहाँ पृथ्वी पर जब शिशु रूप से प्रकट होता है तो उसका जन्म किसी मां से नहीं होता तथा न ही उसका पालन पोषण किसी माता से होता है। उस शिशु रूप में प्रकट परमात्मा की परवरिश कुँवारी गायों द्वारा होती है। वह पूर्ण परमात्मा अन्य रूप धारण करके भी जब चाहे यहाँ पृथ्वी पर या अन्य किसी भी लोक में प्रकट हो जाता है। वह एक समय में अनेक रूपधार कर भिन्न.2 लोकों में भी साकार प्रकट हो जाता है तथा कभी.2 अपने अन्य सेवक भी प्रकट करता है उसके द्वारा अपने पूर्व दिये ज्ञान को यथार्थ रूप में जन साधारण तक पहुँचवाता है।

04वेदों में पूर्ण संत की  (यजुर्वेद, सामवेद)
वेदों, गीता जी आदि पवित्र सद्ग्रंथों में प्रमाण मिलता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है व अधर्म की वृद्धि होती है तथा वर्तमान के नकली संत, महंत व गुरुओं द्वारा भक्ति मार्ग के स्वरूप को बिगाड़ दिया गया होता है। फिर परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। उसकी पहचान होती है कि वर्तमान के धर्म गुरु उसके विरोध में खड़े होकर राजा व प्रजा को गुमराह करके उसके ऊपर अत्याचार करवाते हैं। कबीर साहेब जी अपनी वाणी में कहते हैं कि-
जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै। या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।
कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी। दूसरी पहचान वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। प्रमाण सतगुरु गरीबदास जी की वाणी में –
”सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्र, कहै अठारा बोध।।“ सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 25, 26 में लिखा है कि वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चैथाई श्लोकों को पुरा करके विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। सुबह पूर्ण परमात्मा की पूजा, दोपहर को विश्व के देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा वह जगत का उपकारक संत होता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25

सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः।
प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।(25)
अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है। भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 26

सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम् वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम् (26)
अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।
भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्र 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्याõ को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 30

सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते (30)
अनुवादः- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।
भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण।।
तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्याय नं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है।
कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 –
तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा।।
धर्मदास मैं कहो बिचारी, जिहिते निबहै सब संसारी।।
प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।।
दोबारा फिर समझाया है –
बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।।
जा को सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।।
ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कह सोई।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।।
उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है कि कड़िहार गुरु (पूर्ण संत) तीन स्थिति में सार नाम तक प्रदान करता है तथा चैथी स्थिति में सार शब्द प्रदान करना होता है। क्योंकि कबीर सागर में तो प्रमाण बाद में देखा था परंतु उपदेश विधि पहले ही पूज्य दादा गुरुदेव तथा परमेश्वर कबीर साहेब जी ने हमारे पूज्य गुरुदेव को प्रदान कर दी थी जो हमारे को शुरु से ही तीन बार में नामदान की दीक्षा करते आ रहे हैं।
हमारे गुरुदेव रामपाल जी महाराज प्रथम बार में श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मा सावित्री जी, श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व माता शेरांवाली का नाम जाप देते हैं। जिनका वास हमारे मानव शरीर में बने चक्रों में होता है। मूलाधार चक्र में श्री गणेश जी का वास, स्वाद चक्र में ब्रह्मा सावित्री जी का वास, नाभि चक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वास, हृदय चक्र में शंकर पार्वती जी का वास, कंठ चक्र में शेरांवाली माता का वास है और इन सब देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्र होते हैं जिनका वर्तमान में गुरुओं को ज्ञान नहीं है। इन मंत्रों के जाप से ये पांचों चक्र खुल जाते हैं। इन चक्रों के खुलने के बाद मानव भक्ति करने के लायक बनता है। सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:–
पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ। ॐ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।।
भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्री है। इनका जाप करके आत्मा को जागृत करो। दूसरी बार में दो अक्षर का जाप देते हैं जिनमें एक ओम् और दूसरा तत् (जो कि गुप्त है उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है।
तीसरी बार में सारनाम देते हैं जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है।

तीन बार में नाम जाप का प्रमाण:–

गीता अध्याय 17 का श्लोक 23

ॐ तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः,
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा।।23।।
अनुवाद: (ॐ) ब्रह्म का(तत्) यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का (सत्) पूर्णब्रह्म का (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) संकेत (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन) उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे।

संख्या न. 822 सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8 (संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य) :-

मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।।
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्।
शब्दार्थ (पूव्र्यः) सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्र अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्र करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्रता के आधार से(परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है।
भावार्थ:- इस मन्त्र में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्र भक्त को पवित्र करके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है कि ओम्-तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविद्य स्मृतः भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने का ¬ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्र जाप स्मरण करने का निर्देश है। इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो। तत्वदर्शी संत के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है तथा गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1 व 4 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना हुई है।

विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्र चारों वेद भी साक्षी हैं कि पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है तथा तीन मंत्र के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है।

05

परमात्मा साकार है व सहशरीर है

यजुर्वेद अध्याय 5, मंत्र 1, 6, 8, यजुर्वेद अध्याय 1, मंत्र 15, यजुर्वेद अध्याय 7 मंत्र 39, ऋग्वेद मण्डल 1, सूक्त 31, मंत्र 17, ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 86, मंत्र 26, 27, ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 82, मंत्र 1 – 3 (प्रभु रजा के समान दर्शनिये है)

06 शिशु रूप में प्रकट पूर्ण प्रभु कुँवारी गायों का दूध पीता है – ऋग्वेद
जिस समय सन् 1398 में पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) कविर्देव काशी में आए थे उस समय उनका जन्म किसी माता के गर्भ से नहीं हुआ था, क्योंकि वे सर्व के सृजनहार हैं।
बन्दी छोड़ कबीर प्रभु काशी शहर में लहर तारा नामक सरोवर में कमल के फूल पर एक नवजात शिशु का रूप धारण करके विराजमान हुए थे। जिसे नीरु नामक जुलाहा घर ले गया था, लीला करता हुआ बड़ा होकर कबीर प्रभु अपनी महिमा आप ही अपनी अमृतवाणी कविर्वाणी (कबीर वाणी) द्वारा उच्चारण करके सत्यज्ञान वर्णन किया जो आज सर्व शास्त्रों से मेल खा रही हैं।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9

अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।9।।
अभी इमम्-अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम् सोमम् इन्द्राय पातवे।
अनुवाद – (उत) विशेष कर (इमम्) इस (शिशुम्) बालक रूप में प्रकट (सोमम्) पूर्ण परमात्मा अमर प्रभु की (इन्द्राय) सुखदायक सुविधा के लिए जो आवश्यक पदार्थ शरीर की (पातवे) वृद्धि के लिए चाहिए वह पूर्ति (अभी) पूर्ण तरह (अध्न्या) जो गाय, सांड द्वारा कभी भी परेशान न की गई हो अर्थात् कुँवारी (धेनवः) गायांे द्वारा (श्रीणन्ति) परवरिश करके की जाती है।
भावार्थ – पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष जब बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है सुख सुविधा के लिए जो आवश्यक पदार्थ शरीर वृद्धि के लिए चाहिए वह पूर्ति कंुवारी गायों द्वारा की जाती है अर्थात् उस समय कुँवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस पूर्ण प्रभु की परवरिश होती है।
07 पूर्ण प्रभु कभी माँ से जन्म नहीं लेता का प्रमाण


LORD KABIR
Banti Kumar
WRITTEN BY

Banti Kumar

📽️Video 📷Photo Editor | ✍️Blogger | ▶️Youtuber | 💡Creator | 🖌️Animator | 🎨Logo Designer | Proud Indian

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


naam diksha ad