पितर पूजा गीता के खिलाफ जानिये कैसे ?

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पितर पूजा निषेध

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भगवान श्री कृष्ण जी ने भी इन पितरों की व भूतों की पूजा करने से साफ मना किया है। 

गीता जी के अध्याय नं. 9 के श्लोक नं. 25 में कहा है कि – 
यान्ति, देवव्रताः, देवान्, पितऋन्, यान्ति, पितव्रताः। 
भूतानि, यान्ति, भूतेज्याः, मद्याजिनः, अपि, माम्। 

अनुवाद: 
देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मतानुसार पूजन करने वाले भक्त मुझसे ही लाभान्वित होते हैं। 
बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज और कबीर साहिब जी महाराज भी कहते हैं । 

‘गरीब, भूत रमै सो भूत है, देव रमै सो देव। राम रमै सो राम है, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘ 

इसलिए उस(पूर्ण परमात्मा) परमेश्वर की भक्ति करो जिससे पूर्ण मुक्ति होवे। वह परमात्मा पूर्ण ब्र सतपुरुष(सत कबीर) है। 
इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय नं. 18 के श्लोक नं. 46 में है।

 यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। 
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।46।। 

अनुवाद: 
जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।।63।। 

गीता अध्याय नं. 18 का श्लोक नं. 62:– 
मेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। 
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।62।। 

अनुवाद: 
हे भरतवंशोभ्द्रव अर्जुन! तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें चला जा। उसकी कृपासे तू परम शान्ति (संसारसे सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जायगा। सर्वभाव का तात्पर्य है कि कोई अन्य पूजा न करके मन-कर्म-वचन से एक परमेश्वर में आस्था रखना। 

गीता अध्याय नं. 8 का श्लोक नं. 22:– 
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। 
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।22।। 

अनुवाद: हे पृथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है। अनन्य भक्ति का तात्पर्य है एक परमेश्वर (पूर्ण ब्रह्म) की भक्ति करना, दूसरे देवी-देवताओं अर्थात् तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की नहीं। 

गीता जी के अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1 से 4:– गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1 
ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्, 
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।। 

अनुवाद: 
ऊपर को जड़ वाला नीचे को शाखा वाला अविनाशी विस्तृत संसार रूपी पीपल का वृक्ष है, जिसके छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ, पत्ते कहे हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो इस प्रकार जानता है। वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है। 

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 

अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृद्धाः, विषयप्रवालाः,
 अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।

 अनुवाद:
 उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी फैली हुई विकार काम क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रूपी कोपल डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव ही जीवको कर्मोमें बाँधने की भी जड़ें अर्थात् मूल कारण हैं तथा मनुष्यलोक, स्वर्ग, नरक लोक पृथ्वी लोक में नीचे (चैरासी लाख जूनियों में) ऊपर व्यस्थित किए हुए हैं।

 गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 3
 न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, 
न, च, सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रोण, दढेन, छित्वा।। 3।। 

अनुवाद:
 इस रचना का न शुरूवात तथा न अन्त है न वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है इस अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला मजबूत स्वरूपवाले निर्लेप तत्वज्ञान रूपी दढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर। (3) 

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 4 
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। 
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रतत्ति प्रसता पुराणी।।4।। 

अनुवाद: 
उसके बाद उस परमपद परमात्मा की खोज करनी चाहिये। जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिससे अनादिकालसे चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तारको प्राप्त हुई है, उस आदि पुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ। 

इस प्रकार स्वयं भगवान श्री कृषण ने इन्द्र जो देवी-देवताओं का राजा है कि पूजा भी छुड़वा कर उस परमात्मा की भक्ति करने के लिए ही प्रेरणा दी थी। जिस कारण उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठा कर इन्द्र के कोप से ब्रज वासियों की रक्षा की। 

गरीब, इन्द्र चढ़ा ब्रिज डुबोवन, भीगा भीत न लेव। 
इन्द्र कढाई होत जगत में, पूजा खा गए देव।। 
कबीर, इस संसार को, समझाऊँ कै बार। 
पूँछ जो पकड़ै भेढ की, उतरा चाहै पार।। 

LORD KABIR
Banti Kumar
WRITTEN BY

Banti Kumar

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