मुसलमान धर्म में विवाह (निकाह/ Ijab-e-Qubool) की रीति | Marriage rituals in Muslim religion | Explained by Sant Rampal Ji | BKPK VIDEO

मुसलमान धर्म में केवल अपनी सगी बहन (माँ की जाई बहन) को छोड़ते हैं। चाचा, ताऊ की लड़कियाँ जो बहन ही होती हैं, उनसे विवाह करना अजीबो-गरीब लगता है। मुसलमानों ने विमर्श करके अपने बच्चों का विवाह अपने ही परिवारों में करना पड़ा। चाचे व ताऊ की लड़कियों से विवाह करने लगे जो मजबूरी तथा जरूरी था।
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मुसलमान धर्म में विवाह की रीति | Marriage rituals in Muslim religion | Explained by Sant Rampal Ji | BKPK VIDEO

प्रश्न:- मुसलमान धर्म में चाचे, ताऊ की लड़कियों से विवाह करने का क्या कारण है? हिन्दू धर्म में चाचे, ताऊ की लड़कियों से विवाह नहीं होता। यहाँ तक कि एक गौत्र में भी विवाह नहीं होता। एक गौत्र के कई गाँव होते हैं। उन गाँवों में भी नहीं होता। हिन्दू धर्म में चाचे, ताऊ की लड़कियों से विवाह तो दूर की बात है, गौत्र तथा पड़ोस के गाँव में भी विवाह नहीं किया जाता। माता के गौत्र तथा पिता के गौत्र में भी विवाह वर्जित है। यदि कोई ऐसी गलती कर देता है तो आन-शान का मामला बनाकर कत्लेआम हो जाता है। मुसलमानों में चाचे तथा ताऊ की लड़कियों से विवाह करना गर्व की, शान की बात मानते हैं जो हिन्दू लोगों की दृष्टि में घृणा का कार्य है

उत्तर:- परिस्थितियाँ अपने अनुकूल चलाती हैं। पहले हिन्दू धर्म में चार गौत्र छोड़कर विवाह किया जाता था। पिता, माता, दादी, परदादी के चार गौत्र छोड़े जाते थे। परिस्थितियाँ बदलती गई। परदादी का गौत्र नहीं छोड़ा जाने लगा। केवल माता का गौत्र, अपना और दादी का गौत्र छोड़ रहे हैं। कुछ दादी का गौत्र भी नहीं छोड़ रहे हैं। केवल अपना व माता का गौत्र छोड़ रहे हैं। मुसलमान धर्म में केवल अपनी सगी बहन (माँ की जाई बहन) को छोड़ते हैं। चाचा, ताऊ की लड़कियाँ जो बहन ही होती हैं, उनसे विवाह करना अजीबो-गरीब लगता है।

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कारण:-

मक्का शहर में काबा (एक मस्जिद) का निर्माण पैगम्बर इब्राहिम तथा हजरत इस्माईल (अलैहि.) ने किया था। उसमें एक प्रभु की पूजा की जाती थी। समय के बदलाव के कारण उसमें 360 बुतों (देवताओं की मूतिर्यों) की पूजा होने लगी थी।

उसी मक्का शहर में 20 अप्रैल सन् 571 ई. को हजरत मुहम्मद जी का जन्म अरब जाति के मशहूर कबीले कुरैश में हुआ। जब चालीस वर्ष के हुए, तब नबी बने। जो भी कुरआन में अल्लाह का आदेश हुआ, उसका प्रचार हजरत मुहम्मद जी लोगों के कल्याण के लिए करने लगे। पुरानी परंपरागत पूजा जो बुत पूजा थी, उसका खंडन करने लगे। एक अल्लाह की भक्ति करना कल्याणकारक बताने लगे जिसका भयंकर विरोध मुहम्मद जी के कबीले वालों यानि कुरैश वालों ने ही किया।

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जिन व्यक्तियों ने कुरआन का आदेश माना, उनको आज्ञाकारी यानि मुसलमान तथा जो इंकार करते थे, उनको काफिर (अवज्ञाकारी) कहा जाने लगा। इस्लाम के मानने वालों यानि मुसलमानों तथा विरोधियों के बीच झगड़ा होने लगा।

मुसलमान विरोधियों की तुलना में सँख्या में बहुत कम थे। हजरत मुहम्मद और उसके अनुयाई मुसलमानों को तरह-तरह से सताया जाने लगा। तंग आकर कुछ मुसलमानों ने मक्का शहर छोड़ दिया। कहीं दूर हब्शा देश चले गए।

हजरत मुहम्मद तथा उसके खानदान का सामाजिक बॉयकाट (बहिष्कार) कर दिया। तीन साल तक हजरत मुहम्मद के खानदान के लोगों को बहुत मुसीबत की जिंदगी गुजारनी पड़ी। बच्चे भूख और प्यास से बिलखते थे। बड़े लोग पत्ते खाकर वक्त गुजार रहे थे।
तीन वर्ष बाद बहिष्कार तो समाप्त हो गया, परंतु मुहम्मद के चाचा अबू तालिब तथा पत्नी खदीजा का देहांत इसी दुःख के कारण हो गया। मक्का के उत्तर में मदीना शहर था जिसे पहले यसरिब के नाम से जाना जाता था।


मदीनावासियों ने इस्लाम को शीघ्र स्वीकार कर लिया। 53 वर्ष की आयु में हजरत मुहम्मद अपने साथियों व परिवार के साथ मक्का छोड़कर मदीना में जाने लगे। जाते समय भी उनको मारने की योजना विरोधियों ने बनाई। मुहम्मद के घर के सामने विरोधी जमा हो गए कि रात्रि में मुहम्मद के घर में घुसकर कत्ल करेंगे। अल्लाह की कृपा से सब ऊँघने लगे। हजरत मुहम्मद चुपचाप निकल गए। आगे चलकर दुश्मनों के भय के कारण तीन दिन तक अपने मित्रा अबुबक्र के साथ एक गुफा में गारे सौर में छुपे रहना पड़ा।
मदीना में शहर के लोगों ने मुसलमानों व हजरत मुहम्मद को सम्मान व सहयोग दिया। तब कुछ राहत मिली। परंतु विरोधियों का सितम कम नहीं हुआ।
मुसलमानों के बच्चों का विवाह भी करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया कि इनके बच्चों का विवाह हमारे परिवारों व खानदान में नहीं होने देंगे। वे लोग मुसलमानों के जानी दुश्मन बने थे। सँख्या में अधिक थे। मुसलमानों ने भी अपने धर्म के पालन के लिए जान हथेली पर रख ली थी।
बहुत लड़ाई लड़ी। लड़ाई तो जीत गए, परंतु विरोध बरकरार रहा। मुसलमानों की सँख्या भी बढ़ी, परंतु नाम मात्रा ही।
बच्चों के विवाह की समस्या बन गई। मुसलमानों ने विमर्श करके अपने बच्चों का विवाह अपने ही परिवारों में करना पड़ा। चाचे व ताऊ की लड़कियों से विवाह करने लगे जो मजबूरी तथा जरूरी था। अपना वंश भी चलाना था। धर्म का पालन भी करना था। कुछ समय तक तो यह विवाह कर्म अजीब लगा, परंतु परिस्थितियों और लंबा समय गुजर जाने के कारण सब भूलना पड़ा। अब चाचे-ताऊ की लड़कियों से विवाह करना शान व इज्जत का सबब बन गया। चाचे-ताऊ के अतिरिक्त लड़की का विवाह बेइज्जती माना जाने लगा।

पहले जब कभी दो मुसलमान स्त्रिायाँ आपस में झगड़ती थी और उनमें से एक चाचे-ताऊ के घर की बजाय अन्य घर की विवाही होती थी तो उसे ताना देती थी कि तू इज्जत वाली होती तो चाचे-ताऊ के घर ही रहती। वर्तमान में दूसरे परिवारों व दूर देश में भी विवाह होने लगा है।
इस प्रकार मुसलमानों में चाचे तथा ताऊ की लड़कियों के साथ विवाह की परंपरा चली जो वर्तमान में बड़ी इज्जत का काम है।

अन्य कारण:-

हजरत आदम की जीवनी में लिखा है कि उनकी पत्नी हव्वा प्रत्येक बार दो जुड़वां बच्चों को जन्म देती थी जिनमें एक लड़का, एक लड़की होती थी। वे एक बार साथ जन्मे लड़का-लड़की, भाई-बहन माने जाते थे। दूसरी बार जन्मे लड़का-लड़की, भाई-बहन माने जाते थे। उनका विवाह एक-दूसरे की बहन से किया जाता था यानि प्रथम जन्मी लड़की का दूसरे जन्मे लड़के से किया जाता था तथा दूसरे जन्म की लड़की का विवाह प्रथम जन्मे लड़के से किया जाता था। यह प्रथा विवाह की चली। वास्तव में यह तो बहन-भाई का रिश्ता है। मुसलमान धर्म में माता से जन्मे लड़के-लड़की यानि भाई-बहन का विवाह नहीं होता। चाचे-ताऊ की लड़कियों से होता है। वर्तमान में अन्य दूर के परिवारों में रिश्ता होने लगा है। लेकिन चाचा-ताऊ में भी विवाह होता है। परिस्थितियां अपने अनुकूल चलाती हैं।

राजस्थान प्रांत (भारत) में पाली जिला, जोधपुर जिला की एक जाति के व्यक्तियों में अपनी मामा व बूआ की लड़कियों से विवाह का प्रचलन है। वे अपनी लड़की उसको देते हैं जो अपनी लड़की उनके बेटे से विवाह दे।

कारण:- काल के दूत नकली एक कबीर पंथी संत ने लगभग दो सौ वर्ष पहले प्रचार प्रारंभ किया था। उसने उन लोगों को अपनी पहले वाली पूजा छोड़ने को कहा। विष्णु जी की पूजा करने की प्रेरणा की। जिन्होंने उस संत से दीक्षा ली, उनको वैष्णव कहा जाने लगा। उस क्षेत्र के उन्हीं लोगों की जाति वालों ने उन वैष्णवों का बहिष्कार कर दिया। उनके बच्चों का विवाह भी अपनी कौम में करना बंद कर दिया। तब वैष्णवों के सामने मुसीबत खड़ी हो गई। उन्होंने अपनी बूआ तथा मामा की लड़कियों से विवाह करना पड़ा जो रिश्ते में बहन होती हैं। (अटा-सटा) अदला-बदली करने लगे। अपनी लड़की का बूआ के लड़के से तब विवाह करते हैं जब बूआ अपनी लड़की का विवाह उनके लड़के से यानि भाई के लड़के से कर देती है या वायदा कर लेती है। नकली गुरू ने कबीर जी के नाम से साधना भी अधूरी यानि काल वाली बताई, ऊपर से दुर्गति और करवा दी जो वर्तमान तक परेशानी का सामना कर रहे हैं।

ऐसी परंपरा मजबूरी की देन होती हैं। वक्त गुजर जाने के बाद ग्लानि नहीं रहती क्योंकि सब उसी परंपरा का निर्वाह कर रहे होते हैं। भक्तजन समाज की मर्यादा से अधिक आत्म कल्याण को महत्व दिया करते हैं जो समाज के लोगों के साथ विवाद का कारण सदा से बनता आया है।

गुरूदेव रामपाल दास जी से निवेदन है कि जब हम मुसलमान धर्म के प्रचारकों-मौलानाओं से ज्ञान चर्चा करते हैं तो वे जो प्रश्न करते हैं, उनका हम ठीक से जवाब नहीं दे पाते। कृपया आप हमें निर्देश करें कि हम उनके प्रश्नों का क्या जवाब दें? प्रश्न इस प्रकार हैं:-

प्रश्न:- यदि बाखबर हजरत मुहम्मद (सल्ल.) नहीं है तो संत रामपाल जी महाराज जो कि एक गैर-मुस्लिम (दूसरे धर्म से सम्बंधित शख्स) हैं, किस प्रकार बाखबर साबित होते हैं? और हजरत मुहम्मद सल्ल. क्या थे और क्यों इस जहान में आए? कृपया करके स्पष्ट कीजिए।

रामपाल दास:- आप उनके प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर दें:-

उत्तर:- जब आप जी को सृष्टि (कायनात) की रचना की सम्पूर्ण जानकारी होगी, तब इस प्रश्न का उत्तर समझ आएगा। अपने द्वारा पैदा की गई कायनात (सृष्टि) की यथार्थ जानकारी सृष्टि का सृजनकर्ता ही बता सकता है।

संक्षेप में उत्तर इस प्रकार है:- हजरत मुहम्मद नबी जी को तो अल्लाह (प्रभु) के दर्शन भी नहीं हुए। पर्दे के पीछे से वार्ता हुई। तीन साधना करने को कहा {रोजा (व्रत), नमाज तथा अजान (बंग) देना}। वह आदेश पूरे मुसलमान समाज को बताया गया जिसका पालन मुसलमान कर रहे हैं।

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एक बात विशेष विचारणीय है कि जिन नेक आत्माओं को अल्लाह ताला यानि कादर अल्लाह (सतपुरूष) प्रत्यक्ष मिला है, उनको अपने साथ ऊपर अपने निवास स्थान {सतलोक जिसे गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में शाश्वत् स्थान यानि अमर लोक कहा है, उस} में लेकर गया। अपना सिंहासन (तख्त) अपने अमरलोक जिसे सत्यलोक भी कहा जाता है, में दिखाया।(श्री नानक जी ने इसी को सच्चखंड कहा है।) उस सुख सागर की सर्व सुख-सुविधा व खाद्य सामग्री दिखाई।

बताया कि तुम सब जीव जो काल ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्मंडों में रह रहे हो, यहाँ से गए हो। तुमने गलती की थी कि तुम सब जीव (नीचे के लोकों वाले) मेरे को छोड़कर ज्योति निरंजन काल को अल्लाह ताला के समान पूजने लगे यानि उसे चाहने लगे। जिस कारण से मैंने (अल्लाह कबीर यानि सतपुरूष ने) तुम सबको तथा ज्योति निरंजन काल को अपने सतलोक से निकाल दिया। ज्योति निरंजन यानि काल ने तप करके इक्कीस ब्रह्मण्ड मेरे से प्राप्त किए हैं। इन इक्कीस ब्रह्मंडों सहित तुमको तथा काल को निकाला था। जब तक काल के इक्कीस ब्रह्मंडों में रहोगे, तब तक तुम सुखी नहीं हो सकते। तुम सब जीव आत्माएँ मेरे (अल्लाह कबीर के) अंश हो, मेरे बच्चे हो। तुमको काल यानि शैतान ने भ्रमित कर रखा है। मेरा भेद तुमको नहीं देता। अपने को सबका खुदा बताता है। अपने नबी व अवतार भेजकर अपनी महिमा का प्रचार करवाता है। उनको निमित बनाकर स्वयं चमत्कार करता है। किसी फरिश्ते के माध्यम से किसी नगरी का विनाश करवा देता है। कहीं और उपद्रव करवाकर अपने भेजे दूत (संदेशवाहक) की महिमा करता है ताकि जनता उसकी बातों को माने और काल की बताई इबादत (पूजा) करके कर्म खराब कर ले और उसके (काल के) लोक में रहें।

काल (ज्योति निरंजन) ने सतलोक में एक कन्या के साथ बदसलूकी की थी जो इसको तप करते देखकर तथा नेक आत्मा जानकर इस पर फिदा हुई थी। उस कारण से मैंने (अल्लाह कबीर ने) उस कन्या को भी तथा तुम सबको तथा ज्योति निरंजन को अपने इस सुखसागर सतलोक से निकाल दिया था ताकि तुमको सबक मिले कि एक अल्लाह की इबादत न करके अन्य को अल्लाह का शरीक बनाकर (अल्लाह के समान शक्ति वाला व सुख देने वाला) मानकर इबादत करने वाले को कादर अल्लाह पसंद नहीं करता। काल (ज्योति निरंजन) ने अपने लोक में (इक्कीस ब्रह्मंडों में) प्रत्येक ब्रह्मंड में मेरे सतलोक की नकल करके जन्नत (स्वर्ग) बनाई है। जिस कारण से सब साधक (भक्तजन) भ्रम में पड़े हैं। वे इसकी जन्नत को ही सबसे सुखदाई व स्थाई स्थान मान रहे हैं।

काल के लोक में रहने वालों का जन्म-मृत्यु का चक्र सदा रहेगा। मैं (अल्लाह कबीर) तुम सब {जितनी आत्माएँ काल के जाल में फँसी हैं। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, सिख आदि-आदि} आत्माओं को इस महासुखदाई सतलोक वाली जन्नत में वापिस लाना चाहता हूँ।

इसलिए तुम अच्छी नेक आत्माओं को ऊपर लेकर आया हूँ। तुम सबको काल लोक की जन्नत तथा सतलोक की जन्नत के सुख का भेद (अंतर) दिखाने लाया हूँ। मेरे सतलोक में मानव (स्त्री-पुरूष) रूप में हैं। किसी को कोई कष्ट नहीं है, सब आत्माएँ सुखी हैं। काल लोक के अंदर कोई सुखी नहीं है। वहाँ (काल के लोक में) जन्नत (स्वर्ग) में कम, जहन्नम (नरक) में अधिक आत्माएँ रहती हैं। फिर कुत्ते, गधे आदि पशुओं के शरीरों में भी जन्म लेते हैं। पक्षियों, जन्तुओं, जल के जीवों का भी जन्म प्राप्त करके महाकष्ट उठाते हैं। अल्लाह कबीर जी ने उन नेक आत्माओं से कहा कि तुम अब नीचे जाओ। जो तुमने आँखों देखा है, वह सब सच-सच नीचे बताओ ताकि काल के जाल में फँसे भोले मानव को विश्वास हो कि काल ज्योति निरंजन समर्थ खुदा नहीं है। वे लोग जो तुम्हारी बातों पर विश्वास करके मुझ कबीर रब की इबादत जो मैंने तुम्हें बताई है, करके अपने निज स्थान (अपने घर सतलोक सुख सागर) में आकर सदा सुखी हो जाएँ।


मैंने तुमको पृथ्वी पर मानव जन्म दिया है। तुम नेक आत्माओं को चुना है। तुम मेरे संदेशवाहक (रसूल) बनकर आँखों देखा हाल वर्णन करो। इतना समझाकर उन आत्माओं को अल्लाह ताला कबीर जी ने वापिस धरती के ऊपर शरीर में छोड़ा। वे शरीर में प्रविष्ट हुए तथा सतपुरूष (कादर अल्लाह) के रसूल बने व यथार्थ ज्ञान जो आँखों देखा तथा अल्लाह ताला ने बताया यानि उनकी आत्मा में डाला, वह ज्ञान उन नेक आत्मा महात्माओं ने बोला-बताया तथा लिखवाया जो मेरे (रामपाल दास की) समझ में आया। आप सब धर्मों के मानव को फरमाया।
अनेकों बार स्वयं अल्लाह ताला कबीर जी धरती पर रहकर कवियों की तरह आचरण करके अच्छी आत्माओं को मिले तथा उनको अपनी जानकारी बताई। उन नेक आत्माओं ने उस ज्ञान को माना। अपनी पहले वाली साधना त्यागकर उनके बताए अनुसार भक्ति करके अमर लोक (सतलोक) प्राप्त किया। वहाँ जाकर वे सुखी हैं। सदा वहाँ रहेंगे।

जो ज्ञान स्वयं अल्लाह ताला अपने मुख से बोलकर बताता है, लिखवाता है, वह कलामे कबीर (कबीर वाणी) यानि सूक्ष्मवेद कहा जाता है जिसमें सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान है। जिन आत्माओं को परमेश्वर (कादर अल्लाह) मिला, उन्होंने जो आँखों देखा हाल व अल्लाह से सुना ज्ञान बताया व लिखवाया, वह सूक्ष्मवेद से दास (रामपाल दास) ने मिलाया, जाँचा तो शब्दा-शब्द सही मिला।

 


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Banti Kumar
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