।।अथ राग सारंग।।
मन मानसरोवर न्हान रे। जल के जंतु रहै जल मांहीं, आठौं बखत बिहान रे।। टेक।।
लख चौरासी जल के बासी, भ्रमें चार्यौं खान रे ।
चेतन होय कर जड़ कूँ पूजैं, गांठ बांध पषान रे ।।1।।
मरकब कहां चंदन के लेपैं, क्या गंग न्हावावें श्वान रे ।
सूधी होय न पूँछ तास की, छोड़त नाहीं बान्य रे ।।2।।
द्वादष कोटि जहां जम किंकर, बड़े बड़े दैत्य हैवान रे ।
धर्मराय की दरगह मांहीं, हो रही खैंचा तान रे ।।3।।
लख चौरासी कठिन त्रासी, बचन हमारा मान रे ।
जैसे लोह तार जंती में, ऐसे खैंचें प्रान रे ।।4।।
जूनी संकट मेट देत हैं, शब्द हमारा मान रे ।
हरदम जाप जपौ हरि हीरा, चलना आंब दिवान रे ।।5।।
सुरग रसातल लोक कुसातल, रचे जमीं असमान रे ।
चौदह तबक किये छिन मांहीं, सृजे शशि अरु भान रे ।।6।।
निर्गुण नूर जहूर जुहारो, निरख परख प्रवान रे ।
गरीबदास निज नाम निरंतर, सतगुरु दीन्हा दान रे ।।7।।