।।अथ राग केहरा।। ।। शब्द 02 ।।
दृष्टि परै सो धोखा रे, खंड पिंड ब्रह्मण्ड चलैंगे,
थीर नहीं रहसी लोका रे।। टेक।।
रजगुण ब्रह्मा तमगुण शंकर, सतगुण बिष्णु कहावै रे।
चौथे पद का भेद न्यारा, कोई बिरला साधु पावै रे।।1।।
ऋग यजुर् हैं साम अथर्व, च्यारों बेद चित भंगी रे।
सूक्ष्म बेद बांचे साहिब का, सो हंसा सतसंगी रे।।2।।
अलंकार अग है अनुरागी, दृष्टि मुष्टि नहीं आवै रे।
अकह लोक का भेद न जानै, च्यार बेद क्या गावै रे।।3।।
आवै जाय सो हंसा कहिये, परमहंस नहीं आया रे।
पांच तत तीनों गुण तूरा, याह तो कहिये माया रे।।4।।
सुन्न मंडल सुखसागर दरिया, परमहंस प्रवाना रे।
सतगुरु महली भेद लखाया, है सतलोक निदाना रे।।5।।
अगमदीप अमरापुर कहिये, हिलमिल हंसा खेलै रे।
दास गरीब देश है दुर्लभ, साचा सतगुरु बेलै रे।।6।।