Content in this Article
ऐसी हो गुरु में निष्ठा
प्राचीनकाल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-शास्त्रादि का अध्ययन करते थे।
एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया।
सत्शिष्यों में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है।
वेदधर्म मुनि ने शिष्यों से कहाः “हे शिष्यो ! अब प्रारब्धवश मुझे कोढ़ निकलेगा,
मैं अंधा हो जाऊँगा इसलिए काशी में जाकर रहूँगा।
है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहकर सेवा करने के लिए तैयार हो ?”
शिष्य पहले तो कहा करते थेः ʹगुरुदेव ! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाय मेरे प्रभु !ʹअब सब चुप हो गये।
उनमें संदीपक नाम का शिष्य खूब गुरु सेवापरायण, गुरुभक्त था।
उसने कहाः “गुरुदेव ! यह दास आपकी सेवा में रहेगा।”
गुरुदेवः “इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा।”
संदीपकः “इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है।”
वेदधर्म मुनि एवं संदीपक काशी में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे।
कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और अंधत्व भी आ गया। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया।
संदीपक के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। वह दिन रात गुरु जी की सेवा में तत्पर रहने लगा।
वह कोढ़ के घावों को धोता, साफ, करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता, भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता।
गुरुजी गाली देते, डाँटते, तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते.
किंतु संदीपक की गुरुसेवा में तत्परता व गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया।
काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ संदीपक के समक्ष प्रकट हो गये और बोलेः
“तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं।
जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है।
बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।” संदीपक गुरु से आज्ञा लेने गया और बोलाः
“शिवजी वरदान देना चाहते हैं आप आज्ञा दें तो वरदान माँग लूँ कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाय।”
गुरु ने डाँटाः “वरदान इसलिए माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से तेरी जान छूटे !
अरे मूर्ख ! मेरा कर्म कभी-न-कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।”
संदीपक ने शिवजी को वरदान के लिए मना कर दिया।
शिवजी आश्चर्यचकित हो गये कि कैसा निष्ठावान शिष्य है !
शिवजी गये विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृत्तान्त कहा।
विष्णु भी संतुष्ट हो संदीपक के पास वरदान देने प्रकटे।
संदीपक ने कहाः “प्रभु ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।
“भगवान ने आग्रह किया तो बोलाः “आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे।
गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे, गुरुचरणों में दिन प्रतिदिन भक्ति दृढ़ होती रहे।
“भगवान विष्णु ने संदीपक को गले लगा लिया।
संदीपक ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अँधापन !
शिवस्वरूप सदगुरु ने संदीपक को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया।
वे बोलेः “वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा ,
पुत्र ! तुम धन्य हो ! तुम सच्चिदानंद स्वरूप हो।”
गुरु के संतोष से संदीपक गुरु-तत्त्व में जग गया, गुरुस्वरूप हो गया।
अपनी श्रद्धा को कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में सदगुरु पर से तनिक भी कम नहीं करना चाहिए।
वे परीक्षा लेने के लिए कैसी भी लीला कर सकते हैं। गुरु आत्मा में अचल होते हैं, स्वरूप में अचल होते हैं।
जो हमको संसार-सागर से तारकर परमात्मा में मिला दें, जिनका एक हाथ परमात्मा में हो और दूसरा हाथ जीव की परिस्थितियों में हो,
उऩ महापुरुषों का नाम सदगुरु है।