जैन धर्म का सच । About Jainism | Jainism in Hindi | Jain Digambara/Śvētāmbara | Jainism Exposed

जैन धर्म विश्व के सबसे प्राचीन दर्शन या धर्मों में से एक है। यह भारत की श्रमण परम्परा से निकला तथा इसके प्रवर्तक हैं 24 तीर्थंकर, जिनमें अंतिम व प्रमुख महावीर स्वामी हैं। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यो में प्रचुर मात्रा में हैं।
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जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर राजा ऋषभदेव जी इक्ष्वाकु वंश में राजा नाभी राज के पुत्र थे। श्री मद्भगवत् गीता अध्याय 4 श्लोक 1 से 3 में गीता ज्ञान दाता ने वेदों वाला ज्ञान अपने भक्त अर्जुन को श्री गीता जी में सुनाया है, कहा है हे अर्जुन! मैंने इस अविनाश योग को अर्थात भक्ति मार्ग को सूर्य से कहा था, सुर्य ने अपने पुत्रा वैवस्त अर्थात् मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्रा इक्ष्वाकु से कहा! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्त प्राय हो गया। तू मेरा भक्त और प्रिय मित्रा है इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझ को कहा हैे; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है।

चारों वेदों अनुसार साधना करने वालों की दुर्गति हुई

➽ विचारणीय विषय यह है कि राजा ऋषभदेव जी इक्ष्वाकु वंशज थे, यही वेदों वाला ज्ञान उन्हें परम्परागत प्राप्त था। राज्य करते-2 भी वे भक्ति साधना किया करते थे। एक दिन उन्हें पूर्ण परमात्मा एक ऋषि के वेश में मिला तथा अपना नाम कविराचार्य बताया। ऋषभ देव जी को ऋषि कविराचार्य ने बताया कि जो भक्ति आप कर रहे हो यह पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है। पूर्ण सृष्टी रचना का ज्ञान दिया। ऋषभदेव को संसार से पूर्ण वैराग्य हो गया। पूर्ण परमात्मा ने बताया कि मैं सर्व सृष्टी रचनहार हूँ। जो वेदों में कविर्देव व कविः (कविर्) शब्द है वह मेरा वास्तविक नाम है। उसे चाहे ‘‘कवि’’ चाहे ‘‘कविर्’’ कहो। ऋषभदेव जी बहुत प्रभावित हुए तथा अपने कुल गुरु व अन्य ऋषियों से ‘‘कवि’’ ऋषि अर्थात् कविर्देव द्वारा बताए तत्वज्ञान के विषय में जानना चाहा कि यह सत्य है या व्यर्थ है? उन तत्वज्ञान हीन ऋषियों ने ऋषभ देव जी को भ्रमित कर दिया तथा कहा कि वह ऋषि ‘‘कविः (कविर्)’’ झूठ बोलता है। उसे वेदों का कोई ज्ञान नहीं है, ऋषभदेव जी ने उन ऋषियों द्वारा भिन्न-2 प्रकार का भ्रांतियुक्त ज्ञान स्वीकार कर लिया तथा पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं किया। अपने सर्व पुत्रों को भिन्न-2 राज्य देकर स्वयं गृह त्याग कर जंगल में साधना करने लगा। एक वर्ष तक निराहार रह कर साधना की फिर एक हजार वर्ष तक घोर तप किया।

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एक हजार वर्ष की तपस्या के पश्चात् काल ब्रह्म की प्रेरणा से स्वयं ही दिक्षा देने लगे। प्रथम दिक्षा अपने पौत्रा अर्थात् भरत के पुत्रा ‘‘मारीचि’’ को दी। मारीचि ने अपने दादा जी के द्वारा बताई वेदों अनुसार साधना की। उसके परिणाम स्वरूप ब्रह्मस्वर्ग (ब्रह्मलोक में बने स्वर्ग में) देव उपाधी प्राप्त की। फिर मनुष्य जन्म प्राप्त किया। कुछ समय स्वर्ग को प्राप्त हुआ तथा करोड़ों जन्म, गधे, कुत्ते, बिल्ली, वृक्षों आदि के जीवन प्राप्त होकर नरक में भी गया। वही मारीचि वाली आत्मा आगे चलकर श्री महाबीर जैन हुआ जो जैन धर्म का चैबीसवां तीर्थकर हैं। ऋषभ देव जी वाला जीव ही बाबा आदम रूप में उत्पन्न हुआ जो कि पवित्रा इसाई व मुस्लमान धर्म का प्रमुख माना जाता है। (यह प्रमाण पुस्तक ‘‘आओ जैन धर्म को जाने’’ पृष्ठ 154 पर है) पुस्तक ‘‘आओ जैन धर्म को जाने ’’ के पृष्ठ 294 से 296 तक लिखा है कि महाबीर जैन जी का जीव पहले ‘‘मारीचि’’ था जो ऋषभ देव जी के पुत्रा भरत का बेटा था।

मारीचि अर्थात् महाबीर जैन के जीव ने कौन -2 से जन्म धारण किए?

कृप्या निम्न पढ़े:-
निम्न विवरण पुस्तक ‘‘आओ जैन धर्म को जाने‘‘, लेखक – प्रवीण चन्द्र जैन (एम.ए.
शास्त्राी), प्रकाशक – श्रीमति सुनीता जैन, जम्बूद्वीप हस्तिनापुर, मेरठ, (उत्तर प्रदेश) तथा “जैन संस्कृति कोश” तीनों भागों से मिला कर निष्कर्ष रूप से लिया है। श्री ऋषभदेव के पौत्रा (भरत के पुत्रा) श्री मारीचि (महाबीर जैन) के जीव के पहले के कुछ जन्मों की जानकारी –

  1. मारीचि अर्थात् महाबीर जैन वाला जीव पहले एक नगरी में भीलों का राजा था, जिसका नाम पुरुरवा था, जो अगले मानव जन्म में (ऋषभ देव का पौत्रा तथा भरत का पुत्रा) मारीचि हुआ।
  2. मारीचि (महावीर जैन) वाले जीव ने श्री ऋषभदेव से जैन धर्म वाली पद्धति से दीक्षा लेकर साधना की थी, उसके आधार से उसे क्या-क्या लाभ व हानि हुई – श्री महावीर जैन का जीव ब्रह्मस्वर्ग में देव हुआ, फिर मनुष्य हुआ, फिर देव हुआ, फिर मनुष्य हुआ, फिर स्वर्ग गया, फिर मनुष्य हुआ, फिर स्वर्ग गया, फिर भारद्वाज नामक व्यक्ति हुआ, फिर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ। फिर नगोदिया जीव हुआ, फिर महाबीर जैन वाला अर्थात् मारीचि वाला जीव निम्न महाकष्टदायक योनियों को प्राप्त हुआ –
  3. एक हजार बार आक का वृक्ष बना, अस्सी हजार बार सीप बना, बीस हजार बार चन्दन
    का वृक्ष, पाँच करोड़ बार कनेर का वृक्ष, साठ हजार बार वैश्या, पाँच करोड़ बार शिकारी, बीस करोड़ बार हाथी, साठ करोड़ बार गधा, तीस करोड़ बार कुत्ता, साठ करोड़ बार नपुंसक
    (हीजड़ा), बीस करोड़ बार स्त्राी, नब्बे लाख बार धोबी, आठ करोड़ बार घोड़ा, बीस करोड़ बार बिल्ली तथा साठ लाख बार गर्भ पात से मरण तथा अस्सी लाख बार देव पर्याय को भी प्राप्त हुआ।
  4. उपरोक्त कर्म भोग को भोगने के पश्चात् पाप तथा पुण्य को भोगता हुआ मारीचि अर्थात् महाबीर वर्धमान (जैन) वाला जीव एक व्यक्ति बना, फिर महेन्द्र स्वर्ग में देव बना, फिर एक व्यक्ति बना, फिर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। फिर त्रिपृष्ट नामक नारायण हुआ। इसके पश्चात सातवें नरक में गया।
  5. नरक भोग कर फिर एक सिंह (शेर) हुआ, फिर प्रथम नरक में गया। नरक भोग कर फिर सिंह (शेर) बना, फिर उस सिंह को एक मुनि ने ज्ञान दिया। फिर यह सिंह अर्थात् महाबीर जैन का जीव सौधर्म स्वर्ग में सिंह केतु नामक देव हुआ। फिर एक व्यक्ति हुआ। फिर सातवें स्वर्ग में देव हुआ, फिर एक व्यक्ति हुआ। फिर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। फिर व्यक्ति हुआ जो चक्रवर्ती राजा बना, फिर सहòार स्वर्ग में देव हुआ। फिर जम्बूद्वीप के छत्रापुर नगर में राजा का पुत्रा हुआ। फिर पुष्पोतर विमान में देव हुआ।
  6. इसके पश्चात् वही मारीचि वाला जीव चौबीसवां तीर्थकर श्री महावीर भगवान हुआ।

महावीर भगवान अर्थात् महावीर जैन ने तीन सौ तरेसठ पाखण्ड मत चलाये ।

उपरोक्त विवरण पुस्तक ‘‘आओ जैन धर्म को जानें‘‘ पृष्ठ 294 से 296 तक लिखा है तथा जैन संस्कृति कोश प्रथम भाग पृष्ठ 189 से 192, 207 से 209 तक है।

विचार करें – जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव जी से उपदेश प्राप्त करके पवित्रा जैन धर्म वाली भक्ति विधि से साधना करके श्री मारीचि के जीव को (जो आगे चलकर श्री महाबीर जैन बना) क्या मिला ? पुण्य व ¬ (ओंकार) मंत्रा के जाप आदि के आधार से केवल अस्सी लाख बार स्वर्ग प्राप्ति तथा पाप आधार से करोड़ों बार वृक्षों के भव (जीवन) तथा साठ हजार बार वैश्या, पाँच करोड़ बार शिकारी, बीस करोड़ बार हाथी, साठ करोड़ बार गधा, तीस करोड़ बार कुत्ता, करोड़ों बार नपुंसक, करोड़ों बार स्त्राी, लाखों बार धोबी, आठ करोड़ बार घोड़ा, बीस करोड़ बार बिल्ली आदि की योनियों में महाकष्ट भोगा तथा साठ लाख बार गर्भ पात से मृत्यु का महाकष्ट भोगना पड़ा। फिर नरक में भी पाप दण्ड को भोगा। उसके पश्चात् कुछ मानव तथा सिंह आदि पशु के जीवन को भोग कर पुष्पोत्तर विमान में देव हुआ।

महावीर जैन कौन था? | Who is Mahaveer jain?

उस पुष्पोत्तर स्वर्ग से निकल कर वर्धमान उर्फ महावीर जैन का जन्म बिहार राज्य के वैशाली (वसाढ) नगर के समीपवर्ती कुण्ड ग्राम में 599 ई. पू. (सन् 2006 से 2605 वर्ष पूर्व) राजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला की पवित्र कोख से हुआ तथा उनका नाम वर्धमान रखा गया। एक बहुत बड़े सर्प को बालक वर्धमान ने खेलते-खेलते पूंछ पकड़ कर दूर फेंक दिया, जिस कारण से उन्हें ‘महावीर‘ कहा जाने लगा। युवा होने पर समरवीर राजा की पुत्राी यशोदा से शादी हुई, एक प्रिय दर्शना नाम की पुत्री का पिता हुआ। प्रियदर्शना का विवाह जमाली के साथ हुआ। फिर गृह त्याग कर बिना किसी गुरु से दीक्षा लिए भावुकता वश होकर श्री महाबीर जैन जी ने बारह वर्ष घोर तप किया। फिर नगर-नगर में पैदल भ्रमण किया। अंत में राजगृह के पास ऋजुकुला नदी के तटवर्ती शालवृक्ष के नीचे तपस्या करके केवल ज्ञान की प्राप्ति की।

उसके बाद स्वानुभूति से प्राप्त ज्ञान को (गुरु से भक्ति मार्ग न लेकर मनमाना आचरण अर्थात् स्वयं साधना करके जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसको) अपने शिष्यों द्वारा (जिन्हें ‘गणधर‘ कहा जाता था) तथा स्वयं देश-विदेश में तीन सौ तरेसठ पाखण्ड मत चलाये। महाबीर जैन ने अपने तीस वर्ष के धर्म प्रचार काल में बहतर वर्ष की आयु तक पैदल भ्रमण अधिक किया।

महावीर जैन की मृत्यु कब हुई ?

श्री महाबीर जैन की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में 527 ई. पू. हुई। (सन् 2006 से 2533 वर्ष पूर्व श्री महावीर जैन जी की मृत्यु हुई)

दिगम्बर और स्वेताम्बर क्या है?

आगे चल कर यह पाखण्ड मत दो भागों में बंट गया, एक दिगम्बर, दूसरे श्वेताम्बर कहे जाते हैं।
दिगम्बर मत पूर्ण निःवस्त्र अवस्था में मुक्ति मानता है तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था में मुक्ति मानता है।


उपरोक्त विवरण पुस्तक ‘‘जैन संस्कृति कोश‘‘ प्रथम खण्ड, पृष्ठ 188 से 192, 208, 209 तक तथा ‘‘आओ जैन धर्म को जानें‘‘ पृष्ठ 294 से 296 तक से यथार्थ सार रूप से लिया गया है।

शाश्वत सुख रुपी मोक्ष क्या है ?

‘जैन संस्कृति कोश‘ प्रथम खण्ड पृष्ठ 15 पर लिखा है कि जैन धर्म की साधना से शाश्वत सुख रूप मोक्ष प्राप्त होता है।

जरा सोचें:- शाश्वत सुख रूपी मोक्ष का भावार्थ है कि जो सुख कभी समाप्त न हो उसे शाश्वत सुख अर्थात् पूर्ण मोक्ष कहा जाता है। परन्तु जैन धर्म की साधना अनुसार साधक श्री मारीचि उर्फ महाबीर जैन की दुर्गति पढ़कर कलेजा मुंह को आता है। ऐसे नेक साधक के करोड़ों जन्म कुत्ते के हुए, करोड़ों जन्म गधे के, करोड़ों बिल्ली के जन्म, करोड़ों बार घोड़े के जन्म, साठ हजार बार वैश्या के जन्म, करोड़ों बार वृक्षों के जीवन, लाखों बार गर्भपात में मृत्यु कष्ट भोगे, केवल अस्सी लाख बार स्वर्ग में देव के जीवन भोगे। क्या इसी का नाम ‘‘शाश्वत सुख् रूपी मोक्ष‘‘ है?

यह दुर्गति तो उस साधक (मारीचि) के जीव की हुई है जो मर्यादा से श्री ऋषभदेव जी को गुरु बनाकर वेदों अनुसार साधना करता था, ¬ (ओ3म्) नाम का जाप करता था। जिसे वर्तमान में णोंकार मन्त्रा कहते हैं। वही मारीचि वाला जीव ही महाबीर जैन बना जिसने बिना गुरु धारण किए ही साधना प्रारम्भ की तथा जिसने 363 (तीन सौ तरेसठ) पाखण्ड मत चलाए। इसलिए विचारणीय विषय है कि श्री महाबीर जैन जी के जीव का मृत्यु पश्चात् क्या हाल हुआ होगा जो शास्त्रा विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा/साधना) करता था तथा वर्तमान के रीसले (नकलची) जैन मुनियों तथा अनुयाईयों का क्या होगा?

जिसके विषय में गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में वर्णन है कि जो साधक शास्त्रा विधि त्यागकर मनमाना आचरण करता है उसे न तो सुख होता है, न कोई सिद्धि तथा न उसकी गति होती है अर्थात् व्यर्थ है। उपरोक्त प्रमाण से भी सिद्ध हुआ कि तत्वज्ञान के अभाव से केवल तीनों वेदों के आधार से की गई साधना पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है। (गीता अध्याय 9 श्लोक 20 से 23 में भी यही प्रमाण है)

इसीलिए वेद ज्ञान दाता व गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा है कि जो ज्ञान तीनों वेदों (चैथा वेद अथर्ववेद सृष्टी रचना का है भक्ति मार्ग केवल तीन वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद में ही है। इसलिए तीन वेदों का विवरण किया जाता है) का भक्ति ज्ञान है उस में पूर्ण ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान नहीं कहा है। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि श्लोक 24 से 30 तक जो यज्ञों का ज्ञान है वह जन साधारण का है जो अपने-2 मतानुसार साधना करते हैं। परन्तु यथार्थ यज्ञों का ज्ञान पूर्ण परमात्मा के मुख्य ज्ञान में (ब्रह्मण मुखे) अर्थात् तत्वज्ञान में बहुत प्रकार के यज्ञ विस्तार से कहे गये हैं। उनको जानकर पूर्ण मोक्ष को प्राप्त होता है।

गीता अध्याय 4 श्लोक 33 में कहा कि ज्ञान यज्ञ, द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है। इसलिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 श्लोक 10 व 12 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा के विषय में तत्वज्ञान (वास्तविक ज्ञान) को तत्वज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम कर, कपट छोड़ कर विनम्र भाव से प्रार्थना करने पर वे तत्वज्ञान से पूर्ण परिचित तत्वदर्शी सन्त आपको पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने की भक्ति विधि बताऐंगे। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में बताई है कि यह संसार उल्टे लटके वृक्ष तुल्य है। इसकी मूल अर्थात् जड़े ऊपर को हैं, वह तो आदि पुरूष है अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म है। नीचे को तीनों गुण (रजगुण ब्रह्म, सतगुण विष्णु तथा तम्गुण शिव जी) रूपी शाखाऐं तथा अन्य पत्ते जान। इस संसार रूपी वृक्ष के विषय में सम्पूर्ण जानकारी जो बताएगा वह वेद के तात्पर्य को जानता है अर्थात् वह तत्वदर्शी सन्त है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 3 से 4 में भी स्पष्ट किया है कहा है कि उस तत्वदर्शी सन्त के मिल जाने पर उस तत्वज्ञान रूपी शस्त्रा से अज्ञान रूपी वृक्ष को काट कर अर्थात् तत्वज्ञान को समझ कर उसके पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद अर्थात् सत्य लोक को प्राप्त करना चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौट कर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से (जो गीता ज्ञान दाता प्रभु से अन्य है) पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर से सृष्टी की रचना हुई है। उसी आदि पुरूष अर्थात् दिव्य परमेश्वर के मैं शरण हूँ। इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए।

श्री ऋषभदेव जी इक्ष्वाकु वंशी थे। जिन्होंने वेदों अनुसार विधि विधान से साधना की थी, वही साधना श्री मारीचि (अपने पोते) को दी थी। जिस साधना से श्री मारीचि जी की क्या दशा हुई, उसे पाठक ऊपर पढ़ चुके हैं। श्री ऋषभदेव जी जो पवित्रा जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर अर्थात् जैन धर्म के प्रवर्तक हैं वे ही आगे चलकर बाबा आदम हुए। बाबा आदम जी को पवित्रा ईसाई धर्म तथा पवित्रा मुस्लमान धर्म का प्रमुख कहा जाता है। बाबा आदम जी की पत्नी हव्वा थी। जिसने दो पुत्रों (काईन तथा हाबिल) को जन्म दिया। युवा होने पर काईन ने अपने छोटे भ्राता हाबिल का ईष्र्यावश वध कर दिया तथा स्वयं शापवश भ्रमता भटकता रहा।

 


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Banti Kumar
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